श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 17 (Bhagavat Geeta Adhyay 3 Shloka 17 in Hindi): भगवद गीता का अध्याय 3 ‘कर्मयोग’ के नाम से प्रसिद्ध है, जहाँ श्रीकृष्ण कर्म और उसकी गूढ़ता को समझाते हैं। इस अध्याय का श्लोक 17 विशेष रूप से उस अवस्था की बात करता है जहाँ मनुष्य को बाह्य कर्म की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि वह आत्मा में ही स्थित होकर परम संतोष को प्राप्त कर चुका होता है।
भगवद गीता अध्याय 3 श्लोक 17 — मूल श्लोक और भावार्थ

मूल श्लोक 3.17:
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः |
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्य कार्यं न विद्यते ||
यः – जो; तु – लेकिन; आत्म-रतिः – आत्मा में ही आनन्द लेते हुए; एव – निश्चय ही; स्यात् – रहता है; आत्म-तृप्तः – स्वयंप्रकाशित; च – तथा; मानवः – मनुष्य; आत्मनि – अपने में; एव – केवल; च – तथा; सन्तुष्टः – पूर्णतया सन्तुष्ट; तस्य – उसका; कार्यम् – कर्तव्य; न – नहीं; विद्यते – रहता है |
भावार्थ:
जो व्यक्ति आत्मा में ही रत रहता है, आत्मतृप्त और आत्मन्यस्त होता है, वह पूर्णतः संतुष्ट होता है। ऐसे व्यक्ति के लिए कोई बाह्य कर्म आवश्यक नहीं रह जाता।
तात्त्विक व्याख्या: आत्मसंतोष की सिद्धि
यह श्लोक उस व्यक्ति की बात करता है जिसने आत्मा के आनंद में स्थिर होकर आत्मसाक्षात्कार कर लिया है। श्रीकृष्ण बताते हैं कि ऐसा मनुष्य बाह्य संसार की कोई अपेक्षा नहीं रखता — वह अपने भीतर स्थित भगवान की चेतना में रमण करता है और स्वयं में पूर्ण होता है।
इस अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ:
- आत्मा में स्थिरता: मनुष्य जब अपने भीतर स्थित आत्मा में ही रत हो जाता है।
- बाह्य विषयों से विरक्ति: उसे भोग-विलास, यश, या सत्ता की चाह नहीं रहती।
- पूर्ण आत्म-संतोष: किसी कर्तव्य या कर्म का बंधन शेष नहीं रहता।
कृष्णभावनामृत और आत्मतृप्ति का संबंध
श्रील प्रभुपाद के अनुसार, जो व्यक्ति कृष्णभावनामृत (Krishna Consciousness) में पूर्णरूपेण स्थिर होता है, वह शुद्ध चेतना को प्राप्त कर लेता है। ऐसे साधक के लिए धर्म, यज्ञ, दान आदि कर्मों की अनिवार्यता समाप्त हो जाती है क्योंकि उसने पहले ही अपने जीवन का परम लक्ष्य — भगवान की प्राप्ति — हासिल कर लिया होता है।
इससे मिलने वाले लाभ:
- हृदय की पूर्ण शुद्धि
- मोह-माया से मुक्ति
- आत्मा और परमात्मा का मिलन
- कामना रहित जीवन
धार्मिक और भौतिक इच्छाओं का त्याग क्यों आवश्यक है?
भगवद गीता अध्याय 3 का श्लोक 37 स्पष्ट करता है कि कामना ही समस्त पापों की जड़ है। जब व्यक्ति शरीर या मन की इच्छाओं को आत्मा की इच्छा मान लेता है, तब वह भ्रमित होकर माया में फंस जाता है।
संत तुलसीदास ने भी यही बताया:
“जब जीवात्मा भगवान से विमुख हो जाता है, तब माया उसे भ्रम में डाल देती है और वह स्वयं को देह मानने लगता है।”
आत्मज्ञान और भौतिक सुखों की सीमाएँ
जो ज्ञानी आत्मा की दिव्यता को समझते हैं, उन्हें यह भलीभाँति ज्ञात होता है कि:
- आत्मा अमर और अविनाशी है।
- संसारिक विषय आत्मा को संतुष्टि नहीं दे सकते।
- स्थायी आनंद केवल भगवान के सान्निध्य में ही संभव है।
वेदों और कर्मकांड की सीमाएँ
वेदों का उद्देश्य जीवात्मा को परमात्मा से जोड़ना है। जब यह मिलन हो जाता है, तब वेदों के कर्मकांड स्वतः निष्प्रभावी हो जाते हैं।
उदाहरण से समझें:
जैसे कोई छात्र किसी पाठ्यक्रम को सफलतापूर्वक पूर्ण कर लेता है, तो उसके लिए अब उस पाठ्यक्रम की कक्षाओं में जाना, गृहकार्य करना या परीक्षा देना आवश्यक नहीं होता — क्योंकि उसने उस ज्ञान को प्राप्त कर लिया है।
उसी प्रकार, जब आत्मा परमात्मा से एकाकार हो जाती है और आत्मज्ञान प्राप्त कर लेती है, तब वेदों के कर्मकांड उसके लिए आवश्यक नहीं रह जाते — क्योंकि उसका उद्देश्य (भगवत्प्राप्ति) पूर्ण हो चुका होता है।
- जैसे विवाह संपन्न होने के बाद पंडित का कार्य समाप्त हो जाता है।
- वैसे ही आत्मा जब भगवान में लीन हो जाती है, तब वेदों के कर्म उसके लिए आवश्यक नहीं रह जाते।
कर्म से परे का जीवन: क्या और कैसे?
श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि जो आत्मतृप्त है, उसे किसी भी बाह्य कर्तव्य की आवश्यकता नहीं है। ऐसा व्यक्ति केवल आनंद और समर्पण में स्थित रहता है।

इस अवस्था को प्राप्त करने के उपाय:
- भक्ति और ध्यान का अभ्यास करें
- कृष्णनाम जप को जीवन में अपनाएं
- बाह्य विषयों में आसक्ति छोड़ें
- सत्संग और शास्त्राध्ययन को प्राथमिकता दें
FAQs: पाठकों के सामान्य प्रश्न
Q1: क्या आत्मतृप्ति पाने के बाद सभी कर्म छोड़ने चाहिए?
उत्तर: आत्मतृप्ति की स्थिति में स्वयं से उत्पन्न सेवा ही कर्म बन जाती है, जिसे व्यक्ति स्वेच्छा से करता है न कि बंधनवश।
Q2: क्या केवल कृष्णभक्ति से आत्मसंतोष संभव है?
उत्तर: हाँ, श्रीकृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं कि “भक्तियोग ही मेरे तक पहुँचने का सर्वोत्तम मार्ग है।”
Q3: क्या वेदों का अनुसरण आवश्यक नहीं रहता आत्मज्ञानी के लिए?
उत्तर: जब आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है, तब वेदों की दिशा-निर्देश उसके लिए अप्रासंगिक हो जाते हैं।
निष्कर्ष: आत्मा में रमण ही सच्चा मोक्ष है
भगवद गीता श्लोक 3.17 यह उद्घाटित करता है कि जब मनुष्य आत्मा में रमण करता है और भीतर से पूर्ण संतुष्टि को प्राप्त कर लेता है, तब उसके लिए कोई भी बाह्य कर्म आवश्यक नहीं रह जाता। यह अवस्था जीवन का चरम लक्ष्य — भगवत्साक्षात्कार — है।
हमें चाहिए कि हम कर्म करते हुए धीरे-धीरे उस स्थिति की ओर बढ़ें, जहाँ बाहरी बंधन हमें न बाँधें और हम भीतर के आनंद में स्थित हो सकें। यही कर्मयोग की पराकाष्ठा है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस
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