श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 15 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 15 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3 श्लोक 15 में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म, वेद और ब्रह्म के दिव्य संबंध को स्पष्ट किया है। जानिए इस श्लोक का भावार्थ, तात्पर्य और यज्ञ की आध्यात्मिक महत्ता इस विस्तृत लेख में।
श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय ‘कर्मयोग’ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को निष्काम कर्म का उपदेश देते हैं। श्लोक 3.15 में वेदों की उत्पत्ति, कर्म का दिव्य स्वरूप और यज्ञ की महिमा का सारगर्भित वर्णन किया गया है। यह श्लोक हमें बताता है कि सच्चा कर्म वही है जो वेदों के अनुसार किया जाए और भगवान की प्रसन्नता के लिए समर्पित हो। आज के भागदौड़ भरे जीवन में जहाँ लोग तनाव और अशांति से ग्रस्त हैं, वहाँ गीता का यह संदेश अत्यंत प्रासंगिक है।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 15 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 15)
श्लोक 3 . 15
Bhagavad Gita Chapter 3 Verse-Shloka 15
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् || १५ ||
गीता अध्याय 3 श्लोक 15 अर्थ सहित (Gita Chapter 3 Verse 15 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 3 श्लोक 3.15: वेदों से प्रेरित कर्म का रहस्य
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् || १५ ||
शब्दार्थ एवं व्याख्या:
- कर्म – कार्य, कर्तव्य
- ब्रह्म – वेद, परम सत्य
- उद्भवम् – उत्पन्न हुआ
- विद्धि – जानो, समझो
- अक्षर – अविनाशी परब्रह्म
- समुद्भवम् – प्रकट हुआ
- सर्वगतम् – सर्वव्यापी
- नित्यम् – शाश्वत, सनातन
- यज्ञे – यज्ञ में
- प्रतिष्ठितम् – स्थित, विद्यमान
भावार्थ:
वेदों में निर्धारित कर्म साक्षात् परब्रह्म (भगवान) से प्रकट हुए हैं। इसलिए, सर्वव्यापी ब्रह्म सदैव यज्ञ कर्मों में निवास करता है। अर्थात, जो कर्म वेदों के अनुसार और भगवान को समर्पित भाव से किया जाता है, वही सच्चा कर्मयोग है।
तात्पर्य: वेद, कर्म और यज्ञ का गहन विश्लेषण
1. वेद – भगवान की श्वास से प्रकट ज्ञान

भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि वेद उनकी श्वास से प्रकट हुए हैं। बृहदारण्यक उपनिषद (4.5.11) में इसकी पुष्टि की गई है:
“अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितमेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः”
(चारों वेद – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद – भगवान की श्वास से प्रकट हुए हैं।)
इसका अर्थ यह है कि वेद भगवान का सीधा ज्ञान हैं और इनमें दिए गए नियमों का पालन करना ही सच्चा धर्म है। वेदों में कर्म के तीन प्रकार बताए गए हैं:
- कर्म (वैध कार्य)
- विकर्म (निषिद्ध कार्य)
- अकर्म (कर्म न करने का पाप)
जो व्यक्ति वेदों के अनुसार कर्म करता है, वह धीरे-धीरे माया के बंधन से मुक्त हो जाता है।
2. यज्ञ – भगवान को समर्पित कर्म
वेदों में यज्ञ (दिव्य अनुष्ठान) को सर्वोच्च कर्म माना गया है। श्रीमद्भागवतम् (11.19.39) में कहा गया है:
“यज्ञोऽहं भगवत्तमः”
(मैं (कृष्ण) ही यज्ञ हूँ।)
अर्थात, यज्ञ भगवान का ही स्वरूप है। जो कर्म यज्ञ के रूप में किया जाता है, वह सीधे भगवान को समर्पित होता है। यज्ञ के पाँच प्रमुख अंग हैं:
- देवयज्ञ (देवताओं की पूजा)
- पितृयज्ञ (पितरों का तर्पण)
- भूतयज्ञ (प्राणियों की सेवा)
- मनुष्ययज्ञ (अतिथि सत्कार)
- ब्रह्मयज्ञ (वेदाध्ययन)
3. कर्मफल से मुक्ति का सिद्धांत
- वेदों के अनुसार कर्म करने से ही मनुष्य कर्मबंधन से मुक्त होता है।
- स्वार्थपूर्ण कर्म (विकर्म) पाप की ओर ले जाता है, जबकि यज्ञ के लिए किया गया कर्म मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है।
- भगवान कृष्ण कहते हैं कि जो लोग वेदों के निर्देशानुसार कर्म करते हैं, वे धीरे-धीरे भौतिक इच्छाओं से ऊपर उठकर भक्ति की ओर अग्रसर होते हैं।
कर्मयोग का आधुनिक जीवन में अनुप्रयोग
1. निष्काम कर्म: गीता का मूल मंत्र
गीता का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है – “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” (2.47)
- इसका अर्थ है कि हमें केवल कर्म करने का अधिकार है, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।
- आज के संदर्भ में यह सिद्धांत हमें तनावमुक्त जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
2. यज्ञ भावना का विस्तारित स्वरूप
प्राचीन काल में यज्ञ का अर्थ था अग्नि में आहुति देना, लेकिन आज के युग में इसका अर्थ व्यापक हो गया है:
- दानयज्ञ – गरीबों, जरूरतमंदों की सहायता करना
- ज्ञानयज्ञ – शिक्षा का प्रसार करना
- सेवायज्ञ – समाज के प्रति कर्तव्य निभाना
- ध्यानयज्ञ – आत्मशुद्धि के लिए प्रयास करना
3. वैदिक सिद्धांतों का आधुनिक जीवन में उपयोग
वेदों में दिए गए नैतिक नियम आज भी प्रासंगिक हैं:
- सत्यम् वद (सत्य बोलो – ऋग्वेद)
- धर्मम् चर (धर्म का पालन करो – यजुर्वेद)
- अहिंसां प्रतिपालय (अहिंसा का पालन करो – अथर्ववेद)
- संयमं कुरु (इंद्रियों पर नियंत्रण रखो – उपनिषद)
निष्कर्ष: कर्मयोग – जीवन का श्रेष्ठतम मार्ग
श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक हमें सिखाता है कि सच्चा कर्म वही है जो वेदों के अनुसार और भगवान की प्रसन्नता के लिए किया जाए। यज्ञ भावना से किया गया कर्म न केवल हमें पापों से मुक्त करता है, बल्कि भगवद्प्राप्ति का मार्ग भी प्रशस्त करता है।
“योगः कर्मसु कौशलम्”
(कुशलता पूर्वक कर्म करना ही योग है। – गीता 2.50)
इसलिए, हमें वेदों के मार्गदर्शन में कर्म करते हुए जीवन को यज्ञमय बनाना चाहिए।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस