Apara Ekadashi Vrat Katha:अपरा एकादशी की पौराणिक कथा| भगवान श्रीकृष्ण द्वारा बताया गया वह रहस्य जो हर पाप से दिलाए मुक्ति

Apara Ekadashi Vrat Katha: यह बात भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को बताई थी कि ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अपरा एकादशी के नाम से जाना जाता है, जिसे अचला एकादशी भी कहते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – हे राजन! यह एकादशी अत्यंत पुण्यदायिनी और अपार धन-संपत्ति प्रदान करने वाली है। जो भी श्रद्धा और नियमपूर्वक इस व्रत को करता है, वह इस लोक में यश प्राप्त करता है और उसका जीवन सफल हो जाता है।

अपरा एकादशी
Apara Ekadashi Vrat Katha

भगवान श्रीकृष्ण ने अपरा एकादशी की महिमा बताते हुए कहा कि इस दिन भगवान त्रिविक्रम की विशेष रूप से पूजा की जाती है। इस व्रत के प्रभाव से अनेक प्रकार के पापों का नाश हो जाता है। चाहे वह ब्रह्महत्या हो, भूत योनि में जन्म का दोष हो, या फिर दूसरों की निंदा करने का पाप—सभी इस व्रत से दूर हो जाते हैं।

इस एकादशी का पालन करने से परस्त्री गमन, झूठ बोलना, झूठी गवाही देना, झूठे ग्रंथ पढ़ना, स्वयं को झूठा ज्योतिषी या वैद्य बताना जैसे पापकर्म भी समाप्त हो जाते हैं। भगवान मुरलीधर के अनुसार, युद्ध से पीछे हटने वाले क्षत्रिय सामान्यतः नरक को प्राप्त होते हैं, लेकिन यदि वे श्रद्धा से अपरा एकादशी का व्रत करें, तो उन्हें भी स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है। इतना ही नहीं, जो लोग अपने गुरु की निंदा करते हैं और नर्क के अधिकारी बनते हैं, उन्हें भी यह व्रत पापों से मुक्ति प्रदान करता है।

अपरा एकादशी व्रत कथा (Apara Ekadashi Vrat Katha)

भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को इस व्रत की महिमा बताते हुए कहा कि जैसे पुण्य कार्तिक पूर्णिमा के दिन त्रिपुष्कर में स्नान करने से या गंगा किनारे पितरों को पिंडदान करने से मिलता है, ठीक वैसा ही फल अपरा एकादशी व्रत के पालन से भी प्राप्त होता है।

इसी प्रकार, मकर संक्रांति पर प्रयागराज में संगम स्नान, महाशिवरात्रि का व्रत, सिंह राशि में बृहस्पति होने पर गोमती स्नान, कुंभ में केदारनाथ या बद्रीनाथ के दर्शन, सूर्यग्रहण के समय कुरुक्षेत्र स्नान, स्वर्णदान या अर्धप्रसूता गाय का दान—इन सभी से जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्यफल एक निष्ठापूर्वक की गई अपरा एकादशी से भी मिल सकता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अपरा एकादशी व्रत को पापरूपी वृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी की तरह बताया है। इस व्रत को श्रद्धा और विधिपूर्वक करने से व्यक्ति अपने समस्त पापों से मुक्त होकर भगवान विष्णु के दिव्य धाम को प्राप्त करता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को इस व्रत की एक प्राचीन कथा भी सुनाई, जिसे व्रत के दिन अवश्य सुनना चाहिए। कथा के अनुसार प्राचीन काल में महीध्वज नामक एक धर्मप्रिय राजा राज्य करता था। उसका छोटा भाई वज्रध्वज अत्यंत निर्दयी, अधर्मी और ईर्ष्यालु था। वह अपने बड़े भाई से द्वेष करता था और एक दिन छलपूर्वक उसकी हत्या कर दी। राजा की मृत देह को उसने जंगल में एक पीपल के पेड़ के नीचे दफना दिया। अकाल मृत्यु के कारण राजा की आत्मा प्रेत योनि में चली गई और वह उसी पीपल के वृक्ष पर भटकने लगा, लोगों को डराने और कष्ट देने लगा।

एक दिन महान तपस्वी धौम्य ऋषि उस जंगल से गुजर रहे थे, जहां राजा महीध्वज की आत्मा पीपल के वृक्ष पर प्रेत रूप में भटक रही थी। ऋषि ने अपने तपोबल से उस आत्मा की पीड़ा और पूर्व जीवन का सारा कारण जान लिया। उन्होंने समझा कि यह आत्मा अकाल मृत्यु के कारण अशांति में है। इसके बाद ऋषि ने मंत्रबल और ज्ञान से प्रेत को पेड़ से नीचे उतारा और उसे परलोक संबंधी ज्ञान देकर आत्मशांति का मार्ग दिखाया।

धौम्य ऋषि ने स्वयं अपरा (अचला) एकादशी का व्रत रखा और उसके पुण्य का संकल्प लेकर वह पुण्य राजा महीध्वज की आत्मा को अर्पित कर दिया। इस पुण्य प्रभाव से राजा की प्रेत योनि समाप्त हो गई और उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई।

धौम्य ऋषि द्वारा किए गए अपरा एकादशी व्रत के पुण्य प्रभाव से राजा महीध्वज की आत्मा प्रेत योनि से पूरी तरह मुक्त हो गई। वह दिव्य स्वरूप में प्रकट हुआ और ऋषि का आभार प्रकट करते हुए पुष्पक विमान में सवार होकर स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर गया।

भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा, “हे राजन! यह कथा मैंने लोककल्याण के उद्देश्य से सुनाई है। जो भी श्रद्धापूर्वक इस कथा को पढ़ता या सुनता है, वह अपने समस्त पापों से मुक्त होकर पुण्य का अधिकारी बनता है।”

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