Shri Harivansh Mahaprabhu|कौन हैं हरिवंश महाप्रभु| कैसे हुई राधा-वल्लभ संप्रदाय की स्थापना

भक्ति-युग के अद्भुत संत और राधा वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक श्री हरिवंश महाप्रभु भारतीय वैष्णव परंपरा के उन महान संतों में से एक हैं जिन्होंने भक्ति को प्रेम का रूप देकर उसे हृदय की गहराइयों से जोड़ दिया। उनका सम्पूर्ण जीवन प्रेम, भक्ति और भगवान श्रीराधाकृष्ण की लीला के प्रति समर्पण का उदाहरण है।
श्री हरिवंश महाप्रभु ने भक्तिभाव को केवल कर्मकांड तक सीमित न रखकर उसे भावनात्मक और आत्मिक अनुभूति के स्तर तक पहुँचाया। उन्होंने बताया कि सच्ची भक्ति का अर्थ है – प्रेममय समर्पण, जिसमें साधक का अस्तित्व स्वयं राधा-कृष्ण के प्रेम में विलीन हो जाता है।

Shri Harivansh Mahaprabhu

श्री हरिवंश महाप्रभु जन्म और बाल्यकाल

श्री हरिवंश महाप्रभु का जन्म संवत 1530 (ईस्वी 1473) में उत्तर प्रदेश के इटावा जनपद के बहराइच ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री वल्लभ दास जी तथा माता का नाम जसबाला देवी था। परिवार संस्कारवान और धार्मिक विचारों वाला था। उनके घर में प्रारंभ से ही श्रीकृष्ण भक्ति का वातावरण था, जिससे बालक हरिवंश के हृदय में बचपन से ही भगवान के प्रति गहरी श्रद्धा और प्रेम उत्पन्न हुआ।

बाल्यकाल से ही हरिवंश महाप्रभु अत्यंत तेजस्वी, करुणामय और अध्यात्म-प्रेमी थे। उनके मुखमंडल पर दिव्य आभा झलकती थी। वे खेल-कूद में भी राधा-कृष्ण की लीलाओं का अभिनय करते रहते थे। परिवारजन समझ गए थे कि यह बालक कोई सामान्य आत्मा नहीं, बल्कि ईश्वर का ही अंश है जो इस लोक में धर्म और भक्ति का पुनः प्रचार करने के लिए अवतरित हुआ है।

शिक्षा और अध्यात्म की ओर झुकाव

युवावस्था में हरिवंश महाप्रभु ने वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृतियाँ और दर्शन शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। वे अत्यंत बुद्धिमान और तर्कशक्ति संपन्न थे। किंतु उन्होंने केवल शास्त्रों की विद्या को ही आत्मसात नहीं किया, बल्कि आत्मा की अनुभूति को भी जीवन का आधार बनाया।

कहा जाता है कि अध्ययन के दौरान उन्हें यह अनुभूति हुई कि केवल ज्ञान से मुक्ति संभव नहीं, बल्कि “प्रेम ही मुक्ति का मार्ग है”। इसी प्रेम के तत्वज्ञान को उन्होंने आगे चलकर अपने भक्ति मार्ग की नींव बनाया।

भक्ति मार्ग की स्थापना

श्री हरिवंश महाप्रभु ने जिस भक्ति मार्ग की स्थापना की, उसे “राधा वल्लभ भक्ति मार्ग” कहा गया। यह मार्ग किसी नियम या अनुशासन पर नहीं, बल्कि केवल “भाव” और “प्रेम” पर आधारित है।

उन्होंने कहा कि –

“जहाँ भाव है, वहाँ भगवान हैं; जहाँ प्रेम है, वहाँ परमात्मा स्वयं प्रकट होते हैं।”

उनकी भक्ति का केंद्र केवल श्रीकृष्ण नहीं थे, बल्कि वे श्रीराधा जी को सर्वोच्च शक्ति मानते थे। उनके अनुसार, राधा ही प्रेम की पराकाष्ठा हैं और कृष्ण उस प्रेम के साक्षी। जब तक साधक राधा के भाव में नहीं डूबता, तब तक वह कृष्ण के प्रेम को नहीं पा सकता।

राधा वल्लभ संप्रदाय की उत्पत्ति

श्री हरिवंश महाप्रभु द्वारा स्थापित राधा वल्लभ संप्रदाय वैष्णव भक्ति परंपरा का एक विशिष्ट संप्रदाय है। इसका मूल सिद्धांत है —
“राधा ही परम तत्व हैं, और कृष्ण उनके वल्लभ हैं।”

संप्रदाय की स्थापना लगभग संवत 1565 (ईस्वी 1508) के आसपास मानी जाती है।

एक कथा के अनुसार, श्री हरिवंश महाप्रभु को एक दिव्य स्वप्न में स्वयं श्रीराधा जी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। उन्होंने आदेश दिया कि वे उनके नाम पर भक्ति की एक ऐसी परंपरा प्रारंभ करें जो केवल भाव और प्रेम पर आधारित हो, जहाँ कोई जाति, लिंग या वर्ण का भेद न हो।
इसके बाद हरिवंश महाप्रभु ने वृंदावन जाकर इस दिव्य संप्रदाय की नींव रखी।

वृंदावन में प्रवास और लीला अनुभव

वृंदावन उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अध्याय था। यहाँ उन्होंने अनेक वर्ष तक साधना, भजन और श्रीराधाकृष्ण की लीला-स्मरण में बिताए। कहा जाता है कि उनकी साधना के दौरान वे दिव्य दृष्टि से स्वयं राधा-कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करते थे।

वृंदावन में ही उन्होंने श्री राधा वल्लभ मंदिर की स्थापना की। यह मंदिर आज भी राधा वल्लभ संप्रदाय का प्रमुख तीर्थ स्थल है। यहाँ राधा वल्लभ जी की मूर्ति विराजमान है, जो महाप्रभु की भक्ति की साक्षी है।

राधा वल्लभ दर्शन का दर्शनिक स्वरूप

श्री हरिवंश महाप्रभु का दर्शन भावप्रधान भक्ति दर्शन है। उन्होंने कर्म, ज्ञान और योग को गौण माना और भक्ति को परम मार्ग बताया।

उनके अनुसार –

  1. भक्ति केवल भगवान के प्रति प्रेम है।
  2. राधा भक्ति की अधिष्ठात्री शक्ति हैं।
  3. कृष्ण उस प्रेम के रसस्वरूप हैं।
  4. साधक का लक्ष्य राधा के भाव में लीन होकर कृष्ण की अनुभूति करना है।

इस संप्रदाय में पूजा-पद्धति अत्यंत सरल और भावनात्मक है। इसमें बाह्य आडंबर नहीं, बल्कि हृदय की शुद्धता पर जोर दिया जाता है।

श्री हरिवंश महाप्रभु का साहित्य और रचनाएँ

श्री हरिवंश महाप्रभु ने कई भक्ति ग्रंथों की रचना की। उनकी भाषा ब्रजभाषा थी, जो सरल, भावपूर्ण और काव्यात्मक थी। उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ हैं –

  • श्री राधा रस सुदा निधि
  • भक्तिविलास
  • राधा रास पंचाध्यायी टीका

इन रचनाओं में राधा-कृष्ण प्रेम की अमर व्याख्या की गई है। उन्होंने राधा को केवल देवी नहीं, बल्कि प्रेम की साक्षात प्रतिमा के रूप में देखा।

महाप्रभु का प्रभाव और समकालीन संत

श्री हरिवंश महाप्रभु के समय में भारत में भक्ति आंदोलन अपने चरम पर था। उस समय चैतन्य महाप्रभु, सूरदास, मीराबाई, और तुलसीदास जैसे संतों ने भक्ति का अलख जगाया।

महाप्रभु का मार्ग इन सबसे अलग था, क्योंकि उन्होंने भक्ति में केवल राधा तत्व को केंद्र बनाया। उनके दर्शन में राधा सर्वोच्च हैं, और कृष्ण उनके सेवक के रूप में भाव ग्रहण करते हैं। यह प्रेम की पराकाष्ठा है, जहाँ ईश्वर भी अपने प्रेम के अधीन हो जाते हैं।

समाज में योगदान

महाप्रभु ने समाज को यह सिखाया कि ईश्वर तक पहुँचने के लिए किसी विशेष ज्ञान, संप्रदाय या जाति की आवश्यकता नहीं है। केवल सच्चे भाव और प्रेम से भी ईश्वर को पाया जा सकता है।

उन्होंने समाज में प्रेम, समानता और अहिंसा का संदेश दिया। उनके उपदेशों से हजारों लोगों ने भक्ति और सच्चे जीवन मार्ग को अपनाया।

श्री राधा वल्लभ मंदिर की कथा

वृंदावन में स्थित श्री राधा वल्लभ मंदिर महाप्रभु की भक्ति की जीती-जागती मिसाल है।
कहा जाता है कि जब उन्होंने श्रीराधा वल्लभ जी की मूर्ति स्थापित की, तब मंदिर में एक अलौकिक प्रकाश फैल गया। मूर्ति के दर्शन से आज भी भक्त प्रेम और भक्ति के रस में डूब जाते हैं।

मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ राधा जी की मूर्ति नहीं है, बल्कि उनकी उपस्थिति एक गुलाब के पुष्प के रूप में मानी जाती है, जो उनके प्रेम का प्रतीक है।

श्री हरिवंश महाप्रभु की शिक्षाएँ

श्री हरिवंश महाप्रभु की शिक्षाओं का सार इस प्रकार है –

  • भक्ति का अर्थ है भगवान के प्रति निष्काम प्रेम।
  • राधा के बिना कृष्ण अधूरे हैं, क्योंकि राधा ही प्रेम का स्वरूप हैं।
  • साधक को राधा के भाव में रहकर कृष्ण की आराधना करनी चाहिए।
  • बाहरी साधनाओं से अधिक महत्त्व हृदय की शुद्धता का है।

उनकी यह शिक्षाएँ आज भी भक्ति के मार्गदर्शक के रूप में मानी जाती हैं।

श्री हरिवंश महाप्रभु की मृत्यु और समाधि

श्री हरिवंश महाप्रभु ने अपने जीवन के अंतिम समय तक राधा-कृष्ण की सेवा और भक्ति में स्वयं को समर्पित रखा। कहा जाता है कि जब उनका देहांत निकट आया, तब उन्होंने अपने शिष्यों से कहा –

“अब मेरा शरीर वृंदावन की मिट्टी में विलीन हो, क्योंकि यही मेरा असली धाम है।”

उन्होंने संवत 1607 (ईस्वी 1550) के आसपास वृंदावन में ही अपने नश्वर शरीर का त्याग किया।
उनकी समाधि आज भी वृंदावन में स्थित है, जहाँ प्रतिदिन हजारों भक्त उनके दर्शन के लिए आते हैं।

श्री हरिवंश महाप्रभु का जीवन भारतीय भक्ति परंपरा का स्वर्णिम अध्याय है। उन्होंने प्रेम को ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ रूप बताया और राधा-कृष्ण भक्ति को भावनात्मक और आत्मिक ऊँचाई प्रदान की।

उनके द्वारा स्थापित राधा वल्लभ संप्रदाय आज भी लाखों भक्तों के हृदय में प्रेम, समर्पण और भक्ति की ज्योति जलाए हुए है।
महाप्रभु का जीवन सिखाता है कि जब मन ईश्वर के प्रेम में डूब जाता है, तब हर सांस भक्ति बन जाती है, हर क्षण आनंदमय हो उठता है।

“राधा भाव में जो लीन हुआ, वही हरि का सच्चा भक्त कहलाया।”
– श्री हरिवंश महाप्रभु

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