हिंदू पंचांग के अनुसार, हर वर्ष फाल्गुन माह की सप्तमी तिथि को शबरी जयंती का पर्व मनाया जाता है। यह दिन भगवान श्री राम की परम भक्त माता शबरी को समर्पित है। शबरी जयंती उनके निस्वार्थ भक्ति भाव और श्रद्धा का प्रतीक है। इस दिन भक्त माता शबरी की पूजा-अर्चना करते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान के सच्चे भक्तों की सेवा और सम्मान करने से ही भगवान प्रसन्न हो जाते हैं। इस दिन लोग माता शबरी की वंदना कर भक्ति का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

शबरी जयंती का धार्मिक महत्व (Religious Importance of Shabari Jayanti)
माता शबरी को भगवान राम की परम भक्तों में गिना जाता है। रामायण काल में, जब भगवान राम 14 वर्षों के वनवास पर थे, तब वे माता शबरी के आश्रम में पहुंचे। माता शबरी ने अत्यंत भक्ति और प्रेम से भगवान राम की सेवा की। उन्होंने भगवान राम को जंगली बेर अर्पित किए। परंतु माता शबरी इस बात को लेकर चिंतित थीं कि कहीं बेर खट्टे न हों। इसलिए उन्होंने पहले बेर चखकर यह सुनिश्चित किया कि केवल मीठे बेर ही भगवान को अर्पित किए जाएं। भगवान राम ने माता शबरी के प्रेम और भक्ति को समझते हुए बिना किसी संकोच के उनके अर्पित बेर को आनंदपूर्वक ग्रहण किया। शबरी जयंती उसी दिन को स्मरण करने का पर्व है, जब भगवान राम माता शबरी के आश्रम में आए थे और उनके प्रेमपूर्ण सेवा को स्वीकार किया था।
शबरी जयंती तिथि 2025
वर्ष 2025 में शबरी जयंती 20 फरवरी को मनायी जायेगी।
माता शबरी का आश्रम (Shabari Mata’s Ashram)
माता शबरी का आश्रम वर्तमान में कर्नाटक राज्य के रामदुर्ग से लगभग 14 किलोमीटर दूर गुन्नगा गांव के पास सुरेबान में स्थित है। यह स्थान रामायण काल में ऋष्यमूक पर्वत के नाम से जाना जाता था। वाल्मीकि रामायण में इस स्थान का उल्लेख मिलता है। वर्तमान समय में, यहां माता शबरी की पूजा वन शंकरी और शाकंभरी देवी के रूप में की जाती है। माता शबरी अपने गुरु मातंग ऋषि के आश्रम के पास स्थित एक कुटिया में रहती थीं। उन्होंने अपने गुरु के उपदेशों का पालन करते हुए अपनी संपूर्ण जीवन भक्ति और सेवा में समर्पित कर दिया था।
कौन थीं माता शबरी?
माता शबरी का वास्तविक नाम श्रमणा था, और वे भील समुदाय की शबरी जाति से संबंध रखती थीं। उनके पिता भील समुदाय के राजा थे। जब शबरी विवाह योग्य हुईं, तो उनके पिता ने उनका विवाह एक भील युवक से तय कर दिया। उस समय विवाह के अवसर पर जानवरों की बलि देने का प्रचलन था। शबरी ने इस परंपरा का विरोध किया और निर्दोष जानवरों की जान बचाने के लिए विवाह न करने का निर्णय लिया।
पशुओं की बलि रोकने का साहसिक निर्णय
शबरी आदिवासी भील राजा की पुत्री थीं। विवाह से एक दिन पहले उनके पिता ने सौ भेड़-बकरियां मंगवाईं, जिन्हें बलि के लिए तैयार किया गया था। जब शबरी को इस बात का पता चला, तो उन्होंने इन निर्दोष पशुओं को बचाने का दृढ़ निश्चय कर लिया। शबरी ने रात में ही घर छोड़ दिया और जंगल की ओर चली गईं ताकि बलि की इस क्रूर परंपरा को रोका जा सके। शबरी को यह भली-भांति पता था कि इस तरह घर छोड़ने के बाद वे कभी वापस अपने परिवार के पास नहीं लौट पाएंगी। लेकिन उन्होंने अपने परिवार और समाज के बंधनों से पहले उन निर्दोष पशुओं का जीवन बचाना अधिक महत्वपूर्ण समझा।
शबरी माला देवी की पूजा
माता शबरी को उनकी निस्वार्थ भक्ति और त्याग के लिए देवी का दर्जा प्राप्त हुआ। शबरीमाला मंदिर में उनकी विशेष पूजा-अर्चना होती है, और यहां शबरी जयंती के अवसर पर भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। शबरी जयंती श्रद्धा और भक्ति से मोक्ष प्राप्ति का प्रतीक मानी जाती है। यह मान्यता है कि शबरीमाला देवी की पूजा करने से भक्तों को वैसी ही कृपा प्राप्त होती है, जैसी माता शबरी को भगवान राम से मिली थी। माता शबरी के इस समर्पण और भक्ति भाव ने उन्हें अनंत काल तक पूजनीय बना दिया।
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