चैत्र मास की पूर्णिमा को चैत्र पूर्णिमा कहते हैं, जिसे चैती पूनम भी कहा जाता है। चैत्र मास के हिन्दू वर्ष का पहला महीना होने के कारण, चैत्र पूर्णिमा का खास महत्व है। इस दिन भगवान सत्य नारायण की पूजा कर उनकी कृपा पाने के लिए भी चैत्र पूर्णिमा का उपवास किया जाता है। रात में चंद्रमा की पूजा होती है। उत्तर भारत में इस दिन हनुमान जयंती भी मनाई जाती है। चैत्र पूर्णिमा पर नदी, तीर्थ, सरोवर और पवित्र जलकुंड में स्नान और दान से पुण्य की प्राप्ति होती है।

चैत्र पूर्णिमा व्रत कथा (Chaitra Purnima Vrat Katha)
काशीपुर के एक गरीब ब्राह्मण को भिक्षा मांगते देख, भगवान विष्णु ने एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास आए और कहा, “हे विप्र! श्री सत्यनारायण भगवान मनचाही फल प्रदान करने वाले हैं। तुम उनका व्रत और पूजन करो, जिससे मनुष्य सभी दुखों से मुक्त हो सकता है। इस व्रत में उपवास का भी विशेष महत्व है, किंतु उपवास का अर्थ केवल भोजन न लेना नहीं है। उपवास के समय हृदय में यह ध्यान होना चाहिए कि आज श्री सत्यनारायण भगवान हमारे पास ही विराजमान हैं। अतः अंदर और बाहर की शुचिता बनाए रखें और श्रद्धा एवं विश्वास के साथ भगवान का पूजन करें तथा उनकी मंगलमयी कथा का श्रवण करें।”
श्री सत्यनारायण की कथा यह स्पष्ट करती है कि व्रत-पूजन में सभी मानवों का समान अधिकार है। चाहे वह निर्धन हो या धनवान, राजा हो या व्यवसायी, ब्राह्मण हो या अन्य वर्ग, स्त्री हो या पुरुष। इस कथा में इसके प्रमाण के रूप में निर्धन ब्राह्मण, गरीब लकड़हारा, राजा उल्कामुख, धनवान व्यवसायी, साधु वैश्य, उसकी पत्नी लीलावती, पुत्री कलावती, राजा तुंगध्वज और गोपगणों की कहानियों को शामिल किया गया है।
इस कथा में बताया गया है कि लकड़हारा, गरीब ब्राह्मण, उल्कामुख और गोपगणों ने जब यह सुना कि यह व्रत सुख, सौभाग्य, और संपत्ति प्रदान करता है, तो वे पूरे श्रद्धा, भक्ति और प्रेम के साथ सत्यव्रत का पालन करने लगे। परिणामस्वरूप, उन्होंने सुखी जीवन बिताया और परलोक में मोक्ष की प्राप्ति की।
एक साधु वैश्य ने भी राजा उल्कामुख से यह कहानी सुनी, लेकिन उसकी श्रद्धा आधी-अधूरी थी। उसने मन में ठान लिया कि संतान प्राप्ति पर ही सत्यव्रत-पूजा करेगा। समय बीतने पर उसके घर एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया। जब पत्नी ने व्रत की याद दिलाई, तो उसने कहा कि कन्या के विवाह के समय करेंगे। समय के साथ, कन्या का विवाह भी हो गया, लेकिन उस वैश्य ने फिर भी व्रत नहीं किया। जब वह अपने दामाद के साथ व्यापार के लिए निकला, उन्हें चोरी के आरोप में राजा चन्द्रकेतु ने जेल में डाल दिया। उसके घर में भी चोरी हो गई और उसकी पत्नी लीलावती और पुत्री कलावती भिक्षावृत्ति करने पर मजबूर हो गईं।
एक दिन कलावती ने किसी के घर श्री सत्यनारायण का पूजन होते देखा और अपनी मां को प्रसाद दिया। मां ने अगले दिन पूरी श्रद्धा के साथ व्रत-पूजन किया और भगवान से पति और दामाद की शीघ्र वापसी का वरदान मांगा। श्री हरि प्रसन्न हो गए और स्वप्न में राजा को आदेश दिया कि वे दोनों बंदियों को छोड़ दें, क्योंकि वे निर्दोष हैं। अगले दिन राजा ने उन्हें रिहा कर दिया और धन-धान्य से सम्मानित कर विदा किया। घर लौटने के बाद, वह व्यक्ति चैत्र पूर्णिमा और संक्रांति के दिन सत्यव्रत का आयोजन जीवन भर करता रहा। इसके परिणामस्वरूप, उसने सांसारिक सुख भोगकर मोक्ष प्राप्त किया।
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