श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 52 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 52 in Hindi): गीता के श्लोक 2.52(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 52) में भगवान श्रीकृष्ण ने मोह और अज्ञान के जाल से मुक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त करने का मार्ग दिखाया है। यह श्लोक न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि हमारे दैनिक जीवन की समस्याओं और मानसिक उथल-पुथल से उबरने का भी समाधान प्रस्तुत करता है। आइए, इस श्लोक और इसके अर्थ को विस्तार से समझते हैं।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 52 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 52)
गीता अध्याय 2 श्लोक 52 अर्थ सहित (Gita Chapter 2 Verse 52 in Hindi with meaning)
श्लोक 2.52
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति |
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ||
शब्दार्थ
- यदा: जब
- ते: तुम्हारी
- मोह: अज्ञान और आसक्ति
- कलिलम्: घना जंगल
- बुद्धिः: विवेकशील बुद्धि
- व्यतितरिष्यति: पार कर जाएगी
- तदा: तब
- गन्तासि: जाओगे
- निर्वेदम्: विरक्ति या उदासीनता
- श्रोतव्यस्य: सुनने योग्य
- श्रुतस्य: जो सुना गया
भावार्थ
जब तुम्हारी बुद्धि मोह रूपी घने जंगल को पार कर जाएगी, तब तुम सुनने योग्य और सुने हुए सभी विषयों के प्रति उदासीन हो जाओगे।
इस श्लोक में “मोह” का अर्थ केवल सांसारिक आसक्ति नहीं, बल्कि हमारे जीवन में व्याप्त अज्ञान और भ्रम से है। यह मोह हमें भौतिक सुखों, ऐश्वर्य, और सांसारिक इच्छाओं की ओर आकर्षित करता है और आत्मा के वास्तविक लक्ष्य से भटकाता है।
तात्पर्य: मोह से मुक्ति का महत्व
भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के इस श्लोक में बताया है कि जब हमारी बुद्धि मोह के दलदल से बाहर निकलती है, तब ही हम सच्चे आत्मज्ञान और भक्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।
मोह का अर्थ और उसके प्रभाव
- मोह हमारे विवेक को ढक देता है और हमें सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्त बना देता है।
- यह हमें अपने वास्तविक लक्ष्य, जो आत्मा और परमात्मा का मिलन है, से दूर कर देता है।
- मोह के कारण व्यक्ति केवल भौतिक सुखों और ऐश्वर्य को ही जीवन का उद्देश्य मानने लगता है।
जब हमारी बुद्धि इस मोह से मुक्त होती है, तभी हम आत्मज्ञान और भक्ति के वास्तविक सुख को अनुभव कर सकते हैं।
श्लोक 2.52 का आध्यात्मिक महत्व
इस श्लोक का सबसे बड़ा संदेश यह है कि मोह से मुक्त होकर ही हम अपने जीवन का सही अर्थ समझ सकते हैं। मोह के बंधनों से छुटकारा पाने के लिए भक्ति मार्ग और आत्मा का ज्ञान अत्यंत आवश्यक है।
महान भक्त माधवेन्द्रपुरी का उदाहरण
माधवेन्द्रपुरी जी ने अपने अनुभव में कहा है:
“संध्या वंदन भद्रमस्तु भवतो…
अब मैं केवल श्रीकृष्ण का स्मरण करता हूँ और यही मेरे लिए पर्याप्त है।”
यह बताता है कि जब मनुष्य भगवान की भक्ति में लीन हो जाता है, तो उसे सांसारिक कर्मकांड और रस्में महत्वहीन लगने लगती हैं।
मोह से मुक्ति के बाद का जीवन
1. सांसारिक सुखों से उदासीनता:
जब हमारी बुद्धि मोह से मुक्त होती है, तो भौतिक वस्तुओं और सुखों के प्रति हमारा आकर्षण समाप्त हो जाता है।
2. आत्मज्ञान का उदय:
मोह से बाहर आने के बाद हमें आत्मा और परमात्मा का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है। यह ज्ञान हमें जीवन के सही उद्देश्य को समझने में मदद करता है।
3. वैदिक कर्मकांडों से विरक्ति:
जो व्यक्ति मोह से मुक्त होकर भक्ति में लीन हो जाता है, वह वैदिक कर्मकांडों की औपचारिकता से ऊपर उठ जाता है। उसे केवल भगवान की सेवा ही पर्याप्त लगती है।
4. शांति और संतोष:
मोह के जाल से बाहर आने के बाद व्यक्ति के मन में सच्ची शांति और संतोष का अनुभव होता है।
गीता और उपनिषदों का संदेश
गीता के पूर्व श्लोकों का संदर्भ:
श्रीकृष्ण ने श्लोक 2.42-2.43 में बताया कि जो लोग वेदों के अलंकारिक शब्दों से आकर्षित होते हैं, वे सांसारिक सुख और ऐश्वर्य के प्रति आसक्त हो जाते हैं। लेकिन जो ज्ञानी हैं, वे इन सब से ऊपर उठ जाते हैं।
मुण्डकोपनिषद का उल्लेख:
“परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।”
(मुण्डकोपनिषद् 1.2.12)
ज्ञानी पुरुष यह समझते हैं कि साकाम कर्मों से प्राप्त सुख अस्थायी और कष्टदायी होते हैं। इसलिए वे वैदिक कर्मकांडों से परे रहते हैं।
मोह से मुक्ति के उपाय
1. भक्ति मार्ग अपनाएँ:
भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और उनके प्रति प्रेम से मोह का अंत संभव है।
2. ज्ञान की खोज करें:
आत्मा और परमात्मा के संबंध को समझने का प्रयास करें।
3. सत्संग का लाभ लें:
ज्ञानी महापुरुषों की संगति करें और उनके अनुभवों से प्रेरणा लें।
4. गीता का अध्ययन करें:
भगवद्गीता के श्लोकों का नियमित अध्ययन करें।
5. ध्यान और साधना करें:
ध्यान और साधना के माध्यम से अपने मन को शांत करें और मोह को समाप्त करें।
मोह से मुक्त होने पर क्या मिलता है?
- आध्यात्मिक उन्नति: आत्मा और परमात्मा का मिलन।
- आंतरिक शांति: मोह का अंत मन को स्थिर और शांत बनाता है।
- सही दृष्टिकोण: जीवन और मृत्यु को सही दृष्टि से देख पाना।
- ईश्वर की कृपा: भगवान की सेवा और उनका प्रेम।
निष्कर्ष: मोह का अंत, आत्मा का आरंभ
श्रीकृष्ण के इस श्लोक का गूढ़ अर्थ यह है कि मोह और अज्ञान से छुटकारा पाकर ही हम सच्चे आत्मज्ञान और भक्ति के मार्ग पर चल सकते हैं। यह मार्ग हमें न केवल संसार के भोग-विलास से दूर करता है, बल्कि भगवान के चरणों में शरण लेकर हमें आंतरिक शांति और मुक्ति प्रदान करता है।
तो आइए, गीता के इस श्लोक को जीवन में अपनाएँ और मोह के जंगल से बाहर निकलकर आत्मा और परमात्मा के वास्तविक सुख को प्राप्त करें।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस