अखाड़ों को हिंदू धर्म और संस्कृति के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संरक्षक माना जाता है।  

इस परंपरा की शुरुआत का श्रेय आदि शंकराचार्य को दिया जाता है।  

उन्होंने साधु-संतों के संगठनों को 'अखाड़ा' नाम दिया। 

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शैव, वैष्णव और उदासीन पंथों के साधु-संतों के 13 प्रमुख अखाड़े मान्यता प्राप्त हैं, जिनमें सात शैव संप्रदाय, तीन बैरागी वैष्णव संप्रदाय और तीन उदासीन संप्रदाय शामिल हैं। 

इन अखाड़ों के नाम इस प्रकार हैं: श्री पंच दशनाम जूना (भैरव) अखाड़ा, श्री पंच दशनाम आवाहन अखाड़ा, श्री शम्भू पंच अग्नि अखाड़ा, श्री शम्भू पंचायती अटल अखाड़ा, श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा, पंचायती अखाड़ा श्री निरंजनी, श्री पंच निर्मोहनी अनी अखाड़ा 

श्री पंच दिगम्बर अनी अखाड़ा, श्री पंच निर्वाणी अनी अखाड़ा, तपोनिधि श्री आनंद अखाड़ा, श्री पंचायती अखाड़ा नया उदासीन, श्री पंचायती अखाड़ा निर्मल, श्री पंचायती अखाड़ा बड़ा उदासीन। इन अखाड़ों का इतिहास अत्यंत प्राचीन है और उनका अस्तित्व सदियों से चला आ रहा है।

यह माना जाता है कि प्राचीन काल में हिंदू धर्म की रक्षा के लिए आदि शंकराचार्य ने शस्त्र और शास्त्र विद्या में निपुण साधुओं के संगठनों की स्थापना की। 'अखाड़ा' शब्द मूलतः कुश्ती से जुड़ा हुआ है, लेकिन जहां भी दांव-पेंच की गुंजाइश होती है, वहां इसका उपयोग होता है। 

इसलिए इन संगठनों को भी अखाड़ा नाम दिया गया। इन अखाड़ों का उद्देश्य केवल धार्मिक परंपराओं को संरक्षित करना ही नहीं था, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर धर्म और पवित्र स्थलों की रक्षा करना भी था। 

नागा साधु पिंडदान क्यों करते हैं? नागा साधु बनने के लिए सबसे पहले लंबे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में जीवन व्यतीत करना होता है। इसके बाद, साधु को 'महापुरुष' और फिर 'अवधूत' का दर्जा दिया जाता है। अंतिम प्रक्रिया महाकुंभ के दौरान संपन्न होती है, जिसमें साधु स्वयं का पिंडदान और दंडी संस्कार करता है, जिसे 'बिजवान' कहा जाता है।

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