भगवद गीता के दूसरे अध्याय का 36वां श्लोक (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 36) अर्जुन को उनके निर्णय पर पुनर्विचार के लिए प्रेरित करता है।

श्रीकृष्ण, अर्जुन को समझाने के लिए गीता में न केवल दायित्व और धर्म का सन्देश देते हैं, बल्कि उसे मानवीय सम्मान और वीरता की रक्षा का महत्व भी बताते हैं।

इस श्लोक के माध्यम से वे अर्जुन को यह दर्शाते हैं कि यदि वह युद्ध से पलायन करता है, तो उसके शत्रु उसके साहस का मजाक उड़ाएंगे और उसकी वीरता पर प्रश्न उठाएंगे।

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श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 36 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 36)

"अवाच्यवादांश्र्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः | निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ||"

शब्दार्थ और भावार्थ: अवाच्य – कटु और अनुचित शब्द वादान् – मिथ्या शब्द बहून् – अनेक वदिष्यन्ति – कहेंगे अहिताः – शत्रु निन्दन्त: – निन्दा करते हुए सामर्थ्य – सामर्थ्य, क्षमता दुःख-तरम् – अत्यंत दुखदायी

अनुवाद इस श्लोक का अर्थ यह है कि यदि अर्जुन युद्ध छोड़कर जाता है, तो उसके शत्रु उसे कटु शब्दों में तिरस्कार करेंगे और उसकी वीरता का अपमान करेंगे। अर्जुन के लिए, जो कि एक वीर योद्धा है, यह अपमान सबसे बड़ा दुःख होगा। श्रीकृष्ण का यह वचन अर्जुन के आत्मसम्मान को झकझोरने वाला है, ताकि वह अपने निर्णय का पुनर्मूल्यांकन करे और युद्ध से पलायन न करे।

भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को सन्देश भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक में अर्जुन को यह बताने का प्रयास कर रहे हैं कि युद्ध से भागकर वह न केवल अपने कर्तव्य का त्याग करेगा, बल्कि समाज में उसकी प्रतिष्ठा भी क्षीण होगी। श्रीकृष्ण के अनुसार, युद्ध से विमुख होना एक क्षत्रिय के लिए सबसे बड़ा अपमान है, विशेषकर जब वह धर्म की रक्षा हेतु संग्राम कर रहा हो।

अर्जुन की स्थिति और शत्रुओं का उपहास श्रीकृष्ण जानते थे कि अर्जुन का मन युद्ध के प्रति उदासीन हो चुका है, लेकिन वह यह भी समझते हैं कि अर्जुन के आत्मसम्मान का ह्रास उसके लिए मानसिक कष्ट का कारण बनेगा। शत्रु उसका उपहास करेंगे, और उसे तिरस्कार के शब्दों से संबोधित करेंगे, जिससे उसकी छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

श्लोक का गहरा सन्देश इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण हमें यह सिखाते हैं कि आत्मसम्मान और कर्तव्य के प्रति निष्ठा हमारे लिए कितनी महत्वपूर्ण है। अर्जुन के प्रति कहे गए इन शब्दों में हर व्यक्ति के लिए यह संदेश है कि हमें अपने आत्मसम्मान को बचाए रखने के लिए, अपने सामर्थ्य और कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।

Bhagavad Gita: गीता अध्याय 2 श्लोक 37 अर्थ सहित – हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा