श्रीमद्भगवद्गीता हिंदू धर्म का एक प्रमुख ग्रंथ है, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन और व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। इसमें आत्मा, शरीर, कर्म, धर्म और मोक्ष जैसे विषयों पर विचार किया गया है।

गीता के दूसरे अध्याय के 17वें श्लोक(Gita Chapter 2 Shloka 17) में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा की अविनाशी और शाश्वत प्रकृति का वर्णन किया है। इस श्लोक के माध्यम से उन्होंने अर्जुन को समझाया कि आत्मा अजर-अमर है और किसी भी प्रकार से इसका विनाश नहीं किया जा सकता।

श्लोक: अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्र्चित्कर्तुमर्हति।।

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भावार्थ

"जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही अविनाशी समझो। उस अव्यय आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।"

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह बोध कराया है कि शरीर नाशवान है, लेकिन आत्मा अविनाशी है। आत्मा वह शाश्वत तत्व है जो जन्म और मृत्यु के बंधनों से परे है। भगवान ने स्पष्ट किया है कि आत्मा का कोई विनाश नहीं हो सकता।

शरीर का अंत होता है, लेकिन आत्मा का नहीं। यह सिद्धांत हिंदू दर्शन का मूलभूत सत्य है और इसे ही गीता में बार-बार दोहराया गया है।

शरीर और आत्मा के बीच एक स्पष्ट अंतर है। शरीर भौतिक और नाशवान है, जबकि आत्मा अदृश्य और अविनाशी है। शरीर एक आवरण है, जिसमें आत्मा वास करती है। शरीर का नाश हो सकता है, लेकिन आत्मा अजर-अमर है।

भगवद्गीता के इस श्लोक में आत्मा की सूक्ष्मता और उसकी व्यापकता को भी बताया गया है। आत्मा इतनी सूक्ष्म है कि इसे किसी भी भौतिक साधन से मापा नहीं जा सकता।

उपनिषदों में इसका वर्णन किया गया है कि आत्मा का माप बाल के अग्रभाग के दस हजारवें भाग के बराबर है। यह अदृश्य और सूक्ष्म होने के बावजूद, सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है और यही शरीर की चेतना का कारण है।

Bhagavad Gita: गीता का यह श्लोक हमें आत्मा और शरीर के गूढ़ सत्य से परिचित कराता है