भगवद्गीता, जो कि महाभारत के भीष्म पर्व का एक हिस्सा है, विश्वभर में एक अत्यंत महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है।

इसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का संग्रह है, जिसमें जीवन, मृत्यु, धर्म, और कर्तव्य के गूढ़ रहस्यों को समझाया गया है। गीता के श्लोक 2.16 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 16) में भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा और शरीर के बीच के अंतर को स्पष्ट करते हुए जीवन के शाश्वत सत्य को प्रकट किया है।

श्लोक: नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः।।

Fill in some text

भावार्थ

इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि असत् का कभी भी अस्तित्व नहीं होता और सत् का कभी भी अभाव नहीं होता। यह सत्य तत्त्वदर्शियों द्वारा अनुभव किया गया है, जिन्होंने असत् और सत् की प्रकृति का गहन अध्ययन किया है।

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें यह समझाना चाहते हैं कि इस संसार में जो कुछ भी भौतिक और परिवर्तनशील है, वह असत् है। इसका कोई स्थायित्व नहीं है और यह नष्ट हो जाने वाला है।

इसके विपरीत, जो कुछ शाश्वत और अपरिवर्तनीय है, वह सत् है, और इसका अस्तित्व हमेशा बना रहता है। यहाँ पर असत् से तात्पर्य भौतिक शरीर और भौतिक वस्त्रों से है, जबकि सत् से तात्पर्य आत्मा और उसकी शाश्वतता से है।

भगवद्गीता के इस श्लोक का मुख्य उद्देश्य आत्मा और शरीर के बीच के अंतर को स्पष्ट करना है। श्रीकृष्ण के अनुसार, शरीर असत् है क्योंकि यह परिवर्तनशील और नाशवान है।

शरीर नित्य परिवर्तनशील है और इसके विभिन्न अंग-प्रत्यंग समय के साथ बदलते रहते हैं। शरीर की कोशिकाएँ निरंतर मरती और पैदा होती रहती हैं, और इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप शरीर की अवस्था बदलती रहती है। इसी कारण शरीर वृद्धावस्था और अंततः मृत्यु का सामना करता है।

दूसरी ओर, आत्मा सत् है। आत्मा का कोई परिवर्तन नहीं होता, और यह सदा के लिए स्थायी और शाश्वत है। आत्मा कभी भी नष्ट नहीं होती और न ही इसका कोई विनाश संभव है।

Bhagavad Gita: भगवान श्रीकृष्ण ने आत्मा की अविनाशी और शाश्वत प्रकृति का वर्णन किया