श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक 2.47(Bhagavat Geeta Chapter 2 Shloka 47) "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" हमें जीवन के वास्तविक उद्देश्य का बोध कराता है।

यह श्लोक केवल एक साधारण उपदेश नहीं, बल्कि कर्मयोग का गहन दर्शन है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह सिखाया कि हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है, लेकिन उसके परिणामों पर नहीं। यह श्लोक न केवल अर्जुन के लिए, बल्कि आज भी हर व्यक्ति के जीवन में मार्गदर्शक है।

श्लोक 2.47: भगवद्गीता का सार कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।

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भावार्थ

भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया यह श्लोक केवल महाभारत के युद्धक्षेत्र तक सीमित नहीं है। यह शाश्वत सत्य को उजागर करता है और हर इंसान के जीवन में प्रासंगिक है। यह श्लोक न केवल कर्मयोग का आधार है, बल्कि भारतीय दर्शन और अध्यात्म का महत्वपूर्ण सिद्धांत भी है।

भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, हमें केवल अपने कार्यों पर अधिकार है। इसका मतलब यह है कि हमें अपने कर्तव्य का पालन पूरे समर्पण के साथ करना चाहिए, लेकिन उसके परिणाम की चिंता छोड़ देनी चाहिए।

उदाहरण: एक विद्यार्थी पढ़ाई करता है। उसका कर्तव्य है कि वह पूरी मेहनत और ईमानदारी से पढ़ाई करे। परिणाम यानी परीक्षा में मिले अंक कई कारकों पर निर्भर करते हैं, जैसे सवालों की कठिनाई, परीक्षा के समय की मानसिक स्थिति आदि।

फल से अनासक्ति: मा फलेषु कदाचन यह वाक्यांश हमें सिखाता है कि हमें अपने कर्म का परिणाम भगवान पर छोड़ देना चाहिए। जब हम फल की चिंता करते हैं, तो हमारा ध्यान कार्य से हटकर परिणाम पर चला जाता है। इससे हमारी दक्षता कम हो जाती है।

कर्तापन का अभिमान न करें: मा कर्मफलहेतुर्भूः कर्म का फल केवल हमारे प्रयासों का परिणाम नहीं है। इसमें ईश्वर की कृपा, हमारे पूर्वकर्म और परिस्थितियों का भी योगदान होता है। इसलिए अपने प्रयासों का कर्ता होने का अभिमान छोड़ना चाहिए।

निष्क्रियता से बचें: मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि निष्क्रियता और आलस्य जीवन के लिए बाधक हैं। भगवान ने अर्जुन को कर्म करने के लिए प्रेरित किया। निष्क्रियता से न केवल हमारा विकास रुकता है, बल्कि यह समाज और परिवार के प्रति हमारी जिम्मेदारी से भी दूर ले जाती है।

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