भगवद गीता के श्लोक 2.21(Bhagwat Geeta Chapter 2 Shloka 21) में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को आत्मा के अविनाशी और अजर-अमर स्वरूप के बारे में बताया है।
यह श्लोक हमें यह समझने में मदद करता है कि आत्मा कभी नष्ट नहीं होती और इसे मारा नहीं जा सकता। जब हम इस श्लोक को गहराई से समझते हैं, तो यह हमें जीवन और मृत्यु के परे आत्मा के शाश्वत सत्य का बोध कराता है।
श्लोक 2.21 (संस्कृत)"वेदा विनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्॥"
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भावार्थ
यह श्लोक आत्मा के अविनाशी स्वरूप का वर्णन करता है, जो किसी भी भौतिक या मानसिक शक्ति से प्रभावित नहीं होता। आत्मा का यह शाश्वत स्वरूप हमें यह सिखाता है कि हमारे अस्तित्व का सच्चा अर्थ शरीर में नहीं बल्कि आत्मा में है।
भगवद गीता के इस श्लोक में आत्मा को अजन्मा (अज) और अविनाशी (अव्यय) बताया गया है। इसका अर्थ यह है कि आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, न ही इसका कोई अंत होता है। आत्मा की शाश्वतता को समझना जीवन के मर्म को समझने के समान है।
जब व्यक्ति यह जान जाता है कि आत्मा अविनाशी है, तो वह जीवन के सुख-दुःख, सफलता-असफलता और जन्म-मृत्यु की धारणाओं से ऊपर उठ जाता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि युद्ध के मैदान में वे जिन योद्धाओं के खिलाफ खड़े हैं, उनके शरीर का अंत तो हो सकता है, लेकिन उनकी आत्मा नष्ट नहीं होती।
इस श्लोक का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू है – हिंसा और न्याय के बीच का संबंध। श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट किया कि आत्मा को न तो मारा जा सकता है और न ही मारा जा सकता है। इसलिए, युद्ध में की गई हिंसा वास्तव में आत्मा पर नहीं, बल्कि केवल शरीर पर होती है।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध करने का आदेश दिया, जो धर्म की रक्षा और अन्याय के नाश के लिए आवश्यक था। अर्जुन, जो अपने ही परिवार और मित्रों के खिलाफ युद्ध करने से हिचकिचा रहे थे, को कृष्ण ने यह समझाया कि यह युद्ध केवल भौतिक शरीर के खिलाफ है, आत्मा के खिलाफ नहीं।
Bhagavad Gita: गीता का ये श्लोक शरीर और आत्मा के रिश्ते को स्पष्ट करता है