भगवद गीता का श्लोक 2.13 (Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 13) जीवन के चक्र और आत्मा के अमरत्व को समझाने वाला एक महत्वपूर्ण श्लोक है।
यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि जीवन में परिवर्तन स्वाभाविक हैं और आत्मा अमर है। इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन और मृत्यु के रहस्यों को समझाया है, जिससे अर्जुन को अपने कर्तव्यों का पालन करने में सहायता मिली।
श्लोक:देहिनोSस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति || १३ ||
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भावार्थ
जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से यौवन और फिर वृद्धावस्था में निरंतर अग्रसर होती रहती है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। धीर पुरुष इस परिवर्तन से मोह या शोक को प्राप्त नहीं होते।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन के अनिवार्य सत्य के बारे में बताया है। इस श्लोक के माध्यम से उन्होंने जीवन में होने वाले परिवर्तनों और आत्मा की शाश्वतता को समझाया है। जिस प्रकार शरीर बाल्यावस्था से यौवन और फिर वृद्धावस्था में प्रवेश करता है, उसी प्रकार मृत्यु के बाद आत्मा एक नए शरीर में प्रवेश करती है। यह परिवर्तन अनिवार्य है, और धीर पुरुष इसे समझते हुए मोह और शोक से परे रहते हैं।
इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि आत्मा शाश्वत है और शरीर के विभिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित होते रहने के बावजूद आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं आता। शरीर के बालक, युवा और वृद्ध रूप में बदलने पर भी आत्मा वही रहती है।
मृत्यु के समय आत्मा एक शरीर को त्यागकर दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। धीर व्यक्ति इस सत्य को समझते हुए मृत्यु के बाद होने वाले इस परिवर्तन से विचलित नहीं होते।
यह श्लोक हमें यह भी सिखाता है कि आत्मा के शरीर परिवर्तन के साथ ही जीवन में किए गए कर्मों के अनुसार सुख और दुःख का अनुभव होता है। भीष्म और द्रोण जैसे साधु पुरुषों के लिए अगले जन्म में उन्हें स्वर्ग या आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होंगे, इसलिए उनके लिए शोक का कोई कारण नहीं है।
श्लोक 2.13 में बताया गया है कि धीर पुरुष वह होता है जो आत्मा, परमात्मा और भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रकृति का पूर्ण ज्ञान रखता है। ऐसे व्यक्ति को शरीर परिवर्तन से कोई मोह नहीं होता, क्योंकि वह जानता है कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप अमर है।
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