श्रीमद्भगवद्गीता, जिसे "जीवन का मार्गदर्शक ग्रंथ" कहा जाता है, हमें जीवन के हर पहलू को सही तरीके से समझने और जीने की प्रेरणा देती है। श्लोक 2.57 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 57) में, भगवान श्रीकृष्ण ने स्थिर प्रज्ञा का रहस्य बताया है।
यह श्लोक हमें सिखाता है कि कैसे जीवन की शुभ-अशुभ परिस्थितियों में अपना मानसिक संतुलन बनाए रखा जाए। इसे समझने के लिए हमें रोजमर्रा की जीवन से जुड़े उदाहरणों की मदद लेनी होगी, ताकि इस श्लोक का सही अर्थ और उपयोग हमारे जीवन में स्पष्ट हो सके।
श्लोक 2.57: मूल पाठ और भावार्थमूल श्लोक:यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य श्रुभाश्रुभम् |नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||
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भावार्थ
इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि जो व्यक्ति हर परिस्थिति में स्नेह और द्वेष से मुक्त रहता है, जो शुभ या अच्छी परिस्थितियों में उत्साहित नहीं होता और अशुभ या बुरी परिस्थितियों में विचलित नहीं होता, वही सच्चे ज्ञान में स्थिर होता है।
यह संसार द्वैत से भरा हुआ है। हर पल हमें कुछ न कुछ अच्छा या बुरा अनुभव होता है। जीवन में सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय जैसी परिस्थितियाँ बार-बार आती रहती हैं।
श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से बताते हैं कि जब तक हम भौतिक संसार में रहते हैं, हमें इन द्वैतों का सामना करना ही पड़ता है।
स्थिर प्रज्ञा का अर्थ है वह ज्ञान जो मन को स्थिर रखे। इसे प्राप्त करने वाला व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होता और अपने आंतरिक संतुलन को बनाए रखता है।
जीवन में भागवत गीता श्लोक 2.57 का महत्वश्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक केवल धार्मिक संदर्भ तक सीमित नहीं है। यह जीवन के हर पहलू में उपयोगी है।मानसिक शांति के लिए:जब हम शुभ-अशुभ से प्रभावित नहीं होते, तो हमारा मन शांत और संतुलित रहता है।
संकटों में धैर्य:यह श्लोक हमें सिखाता है कि जीवन के उतार-चढ़ाव में कैसे धैर्य बनाए रखें।आध्यात्मिक उन्नति:शुभ-अशुभ से ऊपर उठकर हम अपने जीवन में भगवान की उपस्थिति को महसूस कर सकते हैं।
व्यावहारिक दृष्टिकोण:किसी भी परिस्थिति में स्थिरता बनाए रखने का गुण हमें सफलता की ओर ले जाता है।
Bhagavad Gita:गीता मे जाने कैसे भौतिक भोग भगवान की भक्ति से दूर कर देती है