श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय दर्शन का ऐसा ग्रंथ है, जो जीवन के हर पहलू पर गहन ज्ञान प्रदान करता है। यह न केवल एक धार्मिक पुस्तक है, बल्कि यह आत्मा, ब्रह्मांड, और भौतिक जीवन के बीच संतुलन को समझाने का भी एक अद्वितीय स्रोत है।
गीता के श्लोक 2.45 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 45) में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन का महत्वपूर्ण संदेश दिया है, जो आज के युग में भी अत्यधिक प्रासंगिक है। यह श्लोक हमें भौतिकता से ऊपर उठकर आत्मज्ञान की ओर प्रेरित करता है।
श्लोक 2.45: मूल पाठ और अर्थत्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्॥
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भावार्थ
वेदों में मुख्यतया प्रकृति के तीनों गुणों का वर्णन हुआ है | हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठो | समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी चिन्ताओं से मुक्त होकर आत्म-परायण बनो |
श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि वेद मुख्य रूप से प्रकृति के तीन गुणों (सत्व, रज, तम) पर आधारित हैं। हे अर्जुन! इन तीनों गुणों से ऊपर उठकर, सभी प्रकार के द्वैतभावों (सुख-दुख, शीत-गर्मी) और लाभ-हानि की चिंताओं से मुक्त होकर आत्मा में स्थित हो जाओ।
त्रैगुण्य: सत्व, रज, और तमप्रकृति के तीन गुण, जिन्हें सत्व, रज और तम कहते हैं, हमारे हर भौतिक कार्य और अनुभव के मूल में हैं।1. सत्व गुण:यह पवित्रता, शांति और ज्ञान का प्रतीक है। सत्व गुण व्यक्ति को शांत और संतुलित बनाता है।2. रज गुण:यह सक्रियता, लालसा और संघर्ष का प्रतीक है। यह व्यक्ति को कर्म करने और अधिक पाने के लिए प्रेरित करता है।3. तम गुण:यह आलस्य, अज्ञानता और निष्क्रियता का प्रतीक है। यह व्यक्ति को निष्क्रिय और आत्मकेंद्रित बनाता है।
– श्रीकृष्ण का संदेश:वे कहते हैं कि यदि मनुष्य इन गुणों से ऊपर उठ जाए, तो वह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को समझ सकता है। यह स्थिति आत्मज्ञान और शांति की ओर ले जाती है।
– जीवन के द्वैत:हर व्यक्ति को सुख और दुख दोनों का सामना करना पड़ता है।– द्वैतों से ऊपर उठने की कला:मनुष्य को इन विरोधाभासों को सहन करना सीखना चाहिए। जब वह इनसे प्रभावित होना बंद कर देता है, तो वह आत्मा के उच्चतम स्तर पर पहुंच जाता है।
योगक्षेम का अर्थ है लाभ प्राप्त करना और उसकी रक्षा करना। लेकिन श्रीकृष्ण बताते हैं कि लाभ और हानि की चिंता से मुक्त होकर मनुष्य को अपने कर्म करने चाहिए।– कर्म में निष्ठा:अपने कार्यों को भगवान को समर्पित करने से यह चिंता समाप्त हो जाती है।– दिव्य अवस्था:जब मनुष्य लाभ और हानि की अपेक्षा से मुक्त हो जाता है, तो वह ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण की स्थिति में पहुंचता है।
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