भगवद गीता के श्लोक 2.15 (Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 15) में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को एक महत्वपूर्ण जीवन की सीख दी है।

यह श्लोक न केवल अर्जुन के लिए बल्कि हम सभी के लिए जीवन में आने वाले कठिनाइयों और संघर्षों का सामना करने का मार्गदर्शन करता है। इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण ने बताया है कि किस प्रकार एक स्थिर और दृढ़ मनुष्य ही जीवन के असली अर्थ को समझ सकता है और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है।

श्लोक: यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ | समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते || १५ ||

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भावार्थ

हे पुरुषश्रेष्ठ (अर्जुन)! जो पुरुष सुख और दुःख में विचलित नहीं होता और इन दोनों में समभाव बनाए रखता है, वह निश्चित रूप से मोक्ष के योग्य है।

श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन से कह रहे हैं कि जीवन में सुख और दुःख एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक सच्चे धीर पुरुष को इन दोनों से समान रूप से प्रभावित नहीं होना चाहिए। जो व्यक्ति इन दोनों स्थितियों को समभाव से सहन करता है, वही मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है।

भगवान चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं 24 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण किया था, जबकि उनकी तरुण पत्नी और वृद्ध माता पर उनकी देखभाल की जिम्मेदारी थी। यह उदाहरण दर्शाता है कि आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्ति के लिए संन्यास और धैर्य कितने महत्वपूर्ण हैं।

जीवन में सुख और दुःख का समान रूप से सामना करना चाहिए।

आत्म-साक्षात्कार के लिए धैर्य और स्थिरता आवश्यक है।

जीवन की कठिनाइयों से विचलित हुए बिना, अपने धर्म का पालन करना चाहिए।

Bhagavad Gita:गीता के इस श्लोक से जानें आत्मा और शरीर के बीच का अंतर