गीता के अध्याय 2, श्लोक 44(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 44) में भगवान श्रीकृष्ण ने यह महत्वपूर्ण शिक्षा दी है कि भौतिक भोग और ऐश्वर्य के प्रति आसक्ति मनुष्य के मन की स्थिरता को बाधित करती है और उसे भगवान की भक्ति से दूर कर देती है।

यह श्लोक हमें यह समझने में सहायता करता है कि सांसारिक इच्छाएं और माया के आकर्षण हमारे आत्मिक विकास और आध्यात्मिक प्रगति में सबसे बड़े बाधक हैं।

श्लोक 2.47:  भोगैश्र्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते || 44 ||

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भावार्थ

जो लोग इन्द्रिय भोग और भौतिक ऐश्वर्य के प्रति अत्यधिक आसक्त होते हैं, उनका मन ऐसी वस्तुओं के मोह में पड़कर भ्रमित हो जाता है। ऐसे मनुष्यों के लिए भगवान की भक्ति का दृढ़ निश्चय करना और अपने मन को समाधि में स्थिर रखना संभव नहीं होता।

इस श्लोक में भगवान कृष्ण कहते हैं कि मनुष्य का ध्यान जिस ओर अधिक आकर्षित होता है, वह उसी दिशा में अपना जीवन व्यतीत करता है। जो लोग भौतिक सुखों, इन्द्रिय भोग और क्षणिक ऐश्वर्य के प्रति आसक्त होते हैं, उनका मन इन वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाता है।

समाधि का अर्थ: समाधि का तात्पर्य है "स्थिर मन।" वैदिक शब्दकोष निरुक्ति के अनुसार, "सम्यग् आधीयतेSस्मिन्नात्मतत्त्वयाथात्म्यम्," यानी जब मन आत्मा को समझने में स्थिर होता है, तो उसे समाधि कहा जाता है। यह मन की उस अवस्था को दर्शाता है जहां मनुष्य आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।

माया का प्रभाव: माया, यानी भौतिक संसार का आकर्षण, मनुष्य के मन को भ्रमित करता है। इन्द्रिय भोग और भौतिक ऐश्वर्य की माया में फंसा हुआ व्यक्ति भगवद्भक्ति के लिए आवश्यक दृढ़ निश्चय नहीं कर पाता।

समाधि की अवस्था प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपने मन को स्थिर और संयमित रखना आवश्यक है। यह तभी संभव है जब मनुष्य अपने इन्द्रिय सुखों और भौतिक ऐश्वर्य की लालसा को छोड़ दे। मन की स्थिरता आत्मज्ञान का मार्ग प्रशस्त करती है, जो भगवद्भक्ति का आधार है।

भोग और ऐश्वर्य से बचने के उपाय आत्मिक जागरूकता: अपने जीवन का उद्देश्य समझें और आत्मा की सच्चाई को जानने का प्रयास करें। संतुलित जीवन: भौतिक सुखों का उपयोग करें, लेकिन उन पर अत्यधिक निर्भर न रहें। ध्यान और योग: ध्यान और योग के माध्यम से अपने मन को नियंत्रित करें। भगवद्गीता का अध्ययन: गीता के उपदेशों को जीवन में अपनाकर आध्यात्मिक प्रगति करें।

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