भगवद्गीता के दूसरे अध्याय का श्लोक 2.32(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 32) भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए मार्गदर्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

इस श्लोक में भगवान अर्जुन को उसके क्षत्रिय धर्म का पालन करने और धर्मयुद्ध में भाग लेने के लिए प्रेरित करते हैं। यह श्लोक हमें न केवल कर्तव्य के प्रति जागरूक करता है, बल्कि यह भी सिखाता है कि अपने कर्तव्यों का पालन करने से मिलने वाले फल कितने महान हो सकते हैं।

श्लोक 2.32 यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम् | सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् || अनुवाद: हे पार्थ! वे क्षत्रिय अत्यंत सुखी हैं जिन्हें ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्गलोक के द्वार खुल जाते हैं।

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भावार्थ:

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन को समझाते हैं कि एक क्षत्रिय का धर्म युद्ध के मैदान में अपने कर्तव्यों का पालन करना है। वह कहते हैं कि एक सच्चे क्षत्रिय के लिए युद्ध का अवसर केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि स्वर्गलोक प्राप्ति का मार्ग भी हो सकता है। इस प्रकार, अर्जुन को युद्ध से विमुख होने के बजाय अपने धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित किया जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के उन विचारों की आलोचना करते हैं जो उसे युद्ध से पीछे हटने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अर्जुन का तर्क था कि इस युद्ध से केवल दुख और विनाश मिलेगा और इससे नरक में शाश्वत वास करना पड़ेगा।

परंतु भगवान कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि अर्जुन का यह विचार अज्ञानजन्य है। वह उसे समझाते हैं कि एक क्षत्रिय के लिए युद्धभूमि में अपने कर्तव्यों का पालन करना ही सच्चा धर्म है और इसे त्यागना केवल मूर्खता है।

श्रीकृष्ण का यह उपदेश न केवल अर्जुन के लिए बल्कि समाज के हर व्यक्ति के लिए एक संदेश है कि व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करते समय अपने स्वार्थ या भावनाओं को बीच में नहीं आने देना चाहिए।

हर व्यक्ति का एक विशिष्ट कर्तव्य होता है, जिसे निभाना उसका धर्म है। श्रीकृष्ण के अनुसार, समाज की भलाई के लिए अपने व्यक्तिगत सुख-दुख का त्याग ही सच्चा धर्म है।

भगवद्गीता का श्लोक 2.32 हमें यह सिखाता है कि समाज की रक्षा और कल्याण के लिए अपने स्वधर्म का पालन करना आवश्यक है। अर्जुन को यह समझाने के माध्यम से, श्रीकृष्ण हमें यह भी बताते हैं कि अपने कर्तव्यों का पालन करना ही मोक्ष का मार्ग है।

Bhagavad Gita:गीता अध्याय 2 श्लोक 33 अर्थ सहित – अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं.