श्रीमद्भगवद्गीता में निहित ज्ञान के अनेक श्लोक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर महत्वपूर्ण शिक्षाएँ प्रदान करते हैं। इन्हीं में से एक श्लोक 2.14(Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 14) है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जीवन के सुख-दुःख और शीत-उष्णता के अनुभवों को लेकर गहरी सीख दी है।

इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह समझाने का प्रयास किया है कि जैसे शीत और उष्णता आते-जाते रहते हैं, वैसे ही सुख और दुःख भी जीवन में क्षणिक रूप से आते-जाते रहते हैं।

श्लोक: मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः | अगामापायिनोSनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत || १४ ||

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भावार्थ

हे कुन्तीपुत्र! सुख तथा दुःख का क्षणिक उदय तथा कालक्रम में उनका अन्तर्धान होना सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के आने-जाने के समान है। हे भरतवंशी! वे इन्द्रियबोध से उत्पन्न होते हैं और मनुष्य को चाहिए कि अविचल भाव से उनको सहन करना सीखे।

श्रीकृष्ण अर्जुन को इस श्लोक में यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि जीवन में आने वाले सुख और दुःख का प्रभाव उतना ही क्षणिक होता है जितना कि शीत और उष्णता का अनुभव।

जिस प्रकार सर्दी के बाद गर्मी और गर्मी के बाद सर्दी आती है, उसी प्रकार जीवन में सुख और दुःख भी आते-जाते रहते हैं। इस प्रकार के अनुभव हमारे इन्द्रियों के संपर्क से उत्पन्न होते हैं और समय के साथ खत्म हो जाते हैं। इसलिए, व्यक्ति को चाहिए कि वह धैर्यपूर्वक इन अनुभवों को सहन करे और अपने कर्तव्यों का पालन करता रहे।

यह श्लोक जीवन के उन अनिवार्य तत्वों पर प्रकाश डालता है, जिनका सामना हर मनुष्य को करना पड़ता है। चाहे वह सुख हो या दुःख, गर्मी हो या सर्दी, ये सभी अनुभव हमें अपने जीवन में महसूस होते हैं।

ये अनुभव न केवल शारीरिक होते हैं, बल्कि मानसिक और भावनात्मक भी होते हैं। लेकिन, श्रीकृष्ण का यह संदेश है कि हमें इन अनुभवों से विचलित नहीं होना चाहिए, बल्कि धैर्यपूर्वक उनका सामना करना चाहिए।

श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक जीवन के गहरे सत्य को प्रकट करता है। सुख और दुःख, शीत और उष्णता की तरह, जीवन में क्षणिक हैं। इस सच्चाई को समझकर, हमें अपने जीवन में आने वाले सभी अनुभवों को धैर्यपूर्वक सहन करने की कला सीखनी चाहिए।

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