श्लोक 2.38(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 38) में भगवान कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि मनुष्य को जीवन में सुख-दुःख, लाभ-हानि, और विजय-पराजय की परवाह किए बिना अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
यह श्लोक हमें जीवन में संतुलन और समभाव बनाए रखने की प्रेरणा देता है, जिससे हम हर परिस्थिति में सशक्त और शांत रह सकते हैं। आइए, इस श्लोक का अर्थ, भावार्थ, और इसके जीवन पर प्रभाव को विस्तार से समझें।
श्लोक 2 . 38 सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ | ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि || ३८ ||
शब्दार्थ और भावार्थ: – सुख-दुःख: सुख और दुःख का अनुभव – समे कृत्वा: समान दृष्टि से देखना – लाभ-अलाभ: लाभ और हानि – जय-अजय: विजय और पराजय – युद्धाय: युद्ध के लिए – युज्यस्व: कर्म में संलग्न होना – पाप: पाप से मुक्ति – अवाप्स्यसि: प्राप्त नहीं होगा
इस श्लोक का अर्थ है कि जीवन में सुख-दुःख, लाभ-हानि, और विजय-पराजय के बीच संतुलन बनाए रखकर अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि इन भौतिक परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना अपने धर्म का पालन करो। यदि हम अपने कर्तव्यों को निष्काम भाव से निभाते हैं तो किसी पाप का बंधन हमें नहीं छू सकता।
श्लोक का गहरा प्रभाव और जीवन में इसका महत्व: इस श्लोक का संदेश हमारे जीवन के हर क्षेत्र में लागू होता है। चाहे कोई भी परिस्थिति हो, सुख या दुःख, सफलता या असफलता, इनसे प्रभावित हुए बिना हमें अपने कर्तव्यों में लगे रहना चाहिए।
भागवत पुराण का संदर्भ और तात्पर्य: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने जो संदेश दिया है, उसे भागवत पुराण में भी स्पष्ट किया गया है। भागवत में कहा गया है कि जिसने अपने सभी कर्म भगवान को समर्पित कर दिए हैं, वह किसी भी प्रकार के ऋण से मुक्त हो जाता है।
देवता, पितर, साधु, और समाज के प्रति कृतज्ञता का भार उस पर नहीं रहता। यह सिद्धांत यह बताता है कि केवल ईश्वर को समर्पित कार्य ही मनुष्य को वास्तविक मुक्ति और शांति प्रदान करते हैं।
भगवद गीता का यह श्लोक हमें अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहने का संदेश देता है। यदि हम अपने कर्तव्य से विमुख होते हैं, तो हमारी पहचान, सम्मान, और यश का ह्रास हो सकता है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट किया है कि जीवन में अपने धर्म का पालन करके ही हम सच्चे यश और मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।