इस श्लोक के माध्यम से श्रीकृष्ण ने केवल अर्जुन को ही नहीं, बल्कि समस्त मानव जाति को यह सिखाया है कि जीवन में अपने कर्तव्यों का निर्वाहन अत्यंत आवश्यक है। यदि हम अपने कर्तव्य से विमुख होते हैं तो न केवल हमारे जीवन का उद्देश्य समाप्त हो जाता है, बल्कि हम पाप के भागी बन जाते हैं।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 2 श्लोक 33 "अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि | ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि || ३३ ||||
अनुवाद: यदि तुम इस धर्मरूपी संग्राम को नहीं करोगे, तो अपने स्वधर्म और यश को खोकर पापपूर्ण परिणाम का सामना करोगे। शाब्दिक अर्थ: यदि तुम इस धर्मरूपी संग्राम को नहीं करोगे, तो अपने स्वधर्म और यश को खोकर पापपूर्ण परिणाम का सामना करोगे।
इस श्लोक में ‘अथ’ का अर्थ है ‘किन्तु’, ‘चेत’ का अर्थ ‘यदि’ और ‘इमं धर्म्यम् संग्रामं’ का अर्थ है ‘इस धर्मरूपी युद्ध को’। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि यदि वह अपने क्षत्रिय धर्म का पालन नहीं करेगा और इस धर्म संग्राम को नहीं लड़ेगा, तो उसे अपने धर्म और यश का त्याग करना पड़ेगा और वह पाप का भागी बनेगा।
इस श्लोक के भावार्थ में भगवान अर्जुन को उसके धर्म की महत्ता का बोध कराते हैं। अर्जुन एक क्षत्रिय है, और उसका कर्तव्य है कि वह अधर्म के खिलाफ लड़ाई लड़े।
युद्ध करना उसके स्वधर्म का हिस्सा है, जिसे त्यागना उसे पाप की ओर ले जाएगा।
अर्जुन के पास महान योद्धा बनने का गौरव है, लेकिन अगर वह इस युद्ध से भागता है, तो उसकी कीर्ति और यश दोनों समाप्त हो जाएंगे।
इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को यह एहसास दिला रहे हैं कि अपने कर्तव्य से भागना उसे अज्ञात पाप का दोषी बना देगा।
मुख्य बातें: – धर्म का पालन: अर्जुन का मुख्य कर्तव्य धर्मरूपी संग्राम में भाग लेना है। – यश की हानि: युद्ध से पीछे हटने पर अर्जुन का यश समाप्त हो जाएगा। – पाप का परिणाम: अपने कर्तव्य का पालन न करने पर अर्जुन को पाप का भागी बनना पड़ेगा।
भगवद गीता का यह श्लोक हमें अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहने का संदेश देता है। यदि हम अपने कर्तव्य से विमुख होते हैं, तो हमारी पहचान, सम्मान, और यश का ह्रास हो सकता है। इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट किया है कि जीवन में अपने धर्म का पालन करके ही हम सच्चे यश और मोक्ष को प्राप्त कर सकते हैं।
जीवन में सुख और दुःख..........