Rambha Tritiya 2025 | रंभा तृतीया 2025 में कब है | जाने इसकी पौराणिक कथा

Rambha Tritiya 2025 Date: ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को प्रतिवर्ष रंभा तृतीया के रूप में मनाया जाता है। वर्ष 2025 में यह पावन तिथि 29 मई, गुरुवार को पड़ रही है। इस दिन स्वर्गलोक की प्रसिद्ध अप्सरा रंभा की पूजा-अर्चना की जाती है। वेदों और पुराणों में अप्सराओं का विस्तार से वर्णन मिलता है, जिन्हें देवताओं के लोक—देवलोक में स्थान प्राप्त है।

रंभा
Rambha Tritiya 2025

मान्यता के अनुसार, रंभा का प्राकट्य समुद्र मंथन के समय हुआ था। इसलिए इस दिन उनकी विशेष रूप से पूजा की जाती है। यह पर्व महिलाओं के लिए अत्यंत शुभ माना गया है। इस दिन स्त्रियां सौभाग्य की रक्षा, सुख-शांति और पति की लंबी आयु के लिए व्रत करती हैं। अविवाहित कन्याएं भी इस दिन उत्तम और योग्य जीवनसाथी की प्राप्ति की कामना से यह व्रत रखती हैं।

रंभा तृतीया व्रत को शीघ्र फलदायी और कल्याणकारी माना गया है, जो स्त्रियों को पारिवारिक सुख और मनचाहा वर प्रदान करता है।

अप्सराओं का पौराणिक महत्व

प्राचीन भारतीय ग्रंथों में अप्सराओं का उल्लेख स्वर्ग और देवलोक से जुड़ा हुआ मिलता है। इनका संबंध उस दिव्य लोक से होता है जहाँ पुण्यात्माओं को भोग, सुख, समृद्धि और सौंदर्य का अनुभव होता है। अप्सराएँ सुंदर, आकर्षक और मनमोहक स्त्रियों के रूप में जानी जाती हैं, जो अपने रूप व लावण्य से किसी को भी आकर्षित करने की सामर्थ्य रखती हैं। उनके पास विशेष दिव्य गुण और सम्मोहक शक्तियाँ होती हैं, जिनसे वे किसी का भी मन मोह सकती हैं।

ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद सहित अनेक वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों में अप्सराओं का वर्णन मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में इनका चित्रण किया गया है, वहीं ऋग्वेद में उर्वशी का उल्लेख प्रमुख अप्सरा के रूप में हुआ है। पौराणिक कथाओं में अप्सराओं का उपयोग अक्सर इंद्र द्वारा ऋषियों की तपस्या भंग करने के लिए किया गया है।विशेष रूप से जिन अप्सराओं के नाम प्रसिद्ध हुए हैं उनमें रंभा, मेनका, उर्वशी, तिलोत्तमा आदि प्रमुख हैं। उर्वशी और राजा पुरुरवा की कथा, विश्वामित्र और मेनका की कथा, तिलोत्तमा की उत्पत्ति तथा रंभा की विविध कथाएँ धार्मिक साहित्य में बहुत लोकप्रिय हैं। इन सभी में रंभा का स्थान विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

अप्सराएँ न केवल अपने सौंदर्य के लिए, बल्कि अपनी प्रभावशाली उपस्थिति और आध्यात्मिक महत्ता के लिए भी पूजनीय मानी जाती हैं।

समुद्र मंथन से रंभा की उत्पत्ति: एक दिव्य कथा

प्राचीन पौराणिक मान्यता के अनुसार, जब दैत्यराज बलि ने तीनों लोकों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया, तो देवगण इन्द्र उसके आतंक से भयभीत हो उठे। इस संकट से उबरने और देवताओं की शक्ति व प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त करने के लिए ब्रह्मा जी, समस्त देवताओं के साथ भगवान श्री विष्णु के पास पहुंचे।

भगवान विष्णु के मार्गदर्शन में समुद्र मंथन की योजना बनाई गई, जिसमें देवताओं और दैत्यों ने मिलकर क्षीर सागर को मथने का निर्णय लिया। मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी के रूप में उपयोग किया गया। समुद्र मंथन को संतुलित करने हेतु श्री विष्णु ने कच्छप अवतार लिया और मंदराचल को अपनी पीठ पर स्थापित कर उसे स्थिर आधार प्रदान किया।

इस महासमुद्र मंथन से अनेक दिव्य वस्तुएं और रत्न उत्पन्न हुए। इन्हीं में से एक थीं अप्सरा रंभा, जो अपने अनुपम सौंदर्य और दिव्यता के कारण स्वर्गलोक में स्थान प्राप्त करती हैं। साथ ही कल्पवृक्ष, चंद्रमा, लक्ष्मी, और अंततः अमृत भी मंथन से प्राप्त हुआ। अमृतपान के बाद देवताओं ने पुनः अपनी शक्ति हासिल की और इन्द्र ने दैत्यराज बलि को पराजित कर स्वर्ग का सिंहासन पुनः प्राप्त किया।

समुद्र मंथन से जो चौदह रत्न प्राप्त हुए, उनमें रंभा का उल्लेख विशेष रूप से होता है। इसीलिए रंभा को अत्यंत पूजनीय और लोकवंदिता माना गया है।
चौदह रत्नों की सूची इस प्रकार है:
लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजात, सुरा, धन्वंतरि, चंद्रमा, कामधेनु, ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, अप्सराएँ (रंभा आदि), उचैःश्रवा घोड़ा, शंख, विष, और अमृत।

अप्सराओं का आध्यात्मिक महत्व और उनके दिव्य स्वरूप की व्याख्या

भारतीय पौराणिक ग्रंथों में अप्सराओं को स्वर्ग या देवलोक की अद्भुत स्त्रियाँ माना गया है। इनका संबंध उस लोक से होता है जहाँ पुण्यात्माएँ विलास, आनंद, और सौंदर्य से युक्त जीवन का अनुभव करती हैं। अप्सराएँ अपने अनुपम रूप, कोमलता और आकर्षक व्यक्तित्व के कारण विशेष मानी जाती हैं। कहा जाता है कि वे अपनी दिव्य आभा और मोहिनी शक्ति से किसी का भी ध्यान आकर्षित कर सकती हैं।

वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों जैसे ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और शतपथ ब्राह्मण में भी इन दिव्य नारियों का उल्लेख किया गया है। विशेषकर ऋग्वेद में उर्वशी को एक प्रतिष्ठित अप्सरा के रूप में वर्णित किया गया है। धर्मग्रंथों में इंद्र द्वारा अप्सराओं को ऋषियों की कठिन तपस्या को विचलित करने के लिए भेजे जाने की कथाएँ भी प्रसिद्ध हैं।

रंभा, मेनका, उर्वशी और तिलोत्तमा जैसी अप्सराएँ अपने रूप और कृतित्व के लिए सर्वाधिक विख्यात हैं। राजा पुरुरवा और उर्वशी की कथा, मेनका और विश्वामित्र की कहानी, तिलोत्तमा की उत्पत्ति, और रंभा से जुड़ी अनेक कथाएँ आज भी धार्मिक साहित्य में पढ़ी और कही जाती हैं। इन सभी में रंभा का स्थान विशिष्ट माना जाता है।

अप्सराएँ केवल सौंदर्य का प्रतीक नहीं हैं, बल्कि वे आध्यात्मिक चेतना और दिव्य शक्ति की प्रतिनिधि भी मानी जाती हैं। उनकी पूजा और स्मरण विशेष अवसरों पर शुभ फलदायी मानी जाती है।

रंभा तृतीया की पौराणिक कथा

पुरातन काल में एक ब्राह्मण दंपति अत्यंत प्रेम और सुख के साथ जीवन व्यतीत कर रहे थे। वे दोनों ही नित्य देवी लक्ष्मी की पूजा किया करते थे। एक दिन ब्राह्मण को किसी कार्यवश नगर से बाहर जाना पड़ा। ब्राह्मण की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी अत्यंत दुखी रहने लगी। समय बीतता गया, और उसका पति घर नहीं लौटा।

एक रात्रि, उसे स्वप्न आया कि उसके पति के साथ कोई दुर्घटना हो गई है। वह घबराकर नींद से जागी और विलाप करने लगी। तभी वहां एक वृद्धा के रूप में माता लक्ष्मी प्रकट हुईं और कारण पूछने पर ब्राह्मणी ने अपना दुख उन्हें बताया। वृद्धा ने उसे ज्येष्ठ मास की रंभा तृतीया का व्रत करने का सुझाव दिया।

ब्राह्मणी ने श्रद्धा से उस दिन व्रत और पूजन किया। व्रत के प्रभाव से कुछ ही समय में उसका पति सकुशल घर लौट आया। तभी से यह व्रत सौभाग्य की रक्षा और पति की कुशलता के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है।

रंभा से जुड़ी अन्य पौराणिक कथाएं

अप्सरा रंभा का उल्लेख कई शास्त्रों और ग्रंथों में मिलता है। उन्हें तीनों लोकों की विख्यात अप्सरा कहा गया है। एक कथा के अनुसार, रंभा कुबेर के पुत्र नलकुबेर की पत्नी थीं। रावण द्वारा रंभा के साथ अनुचित व्यवहार करने पर उन्होंने रावण को शाप दे दिया था।

एक अन्य कथा में बताया गया है कि जब रंभा, ऋषि विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजी गईं, तो ऋषि ने क्रोधित होकर उन्हें शिला (पत्थर) बनने का शाप दे दिया। बाद में एक ब्राह्मण की तपस्या के प्रभाव से वह शाप समाप्त हुआ।

रंभा तृतीया व्रत का धार्मिक महत्व

इस दिन महिलाएं गेहूं, अन्न, फूल, और चूड़ियों के जोड़े के साथ देवी रंभा की पूजा करती हैं। अविवाहित कन्याएं मनचाहे वर की प्राप्ति के लिए इस दिन व्रत रखती हैं। यह व्रत स्त्रियों को सौंदर्य, शुभ वस्त्र, अलंकार, और यौवन का आशीर्वाद देने वाला माना गया है। साथ ही यह स्वास्थ्य और समृद्ध जीवन की कामना को भी पूर्ण करता है।

रंभा तृतीया न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह नारी शक्ति, प्रेम और सौंदर्य की भी मंगलमयी अभिव्यक्ति है।

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