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Mahakumbh 2025: दंडी स्वामी माने जाते हैं भगवान विष्णु के अवतार,दंड होती है इनकी सबसे बड़ी पहचान, जाने इनके बारे में

महाकुंभ में दंडी स्वामी कौन होते हैं? आज के लेख में जानेंगे दंडी स्वामी कौन होते हैं जिन्हे भगवान नारायण का अवतार माना जाता है। निरामिष भोजन, निरपेक्षता, अक्रोध, अध्यात्म में रुचि, आत्मसंयम, गृहत्याग, सिद्धि की प्राप्ति, असहायता, अग्नि से दूरी, परिभ्रमण, मुनि भाव और मृत्यु से निर्भय रहना, सुख-दुःख में समानता जैसे नियमों का पालन करने वाले व्यक्ति ‘दंडी संन्यासी’ कहलाते हैं। दंडी संन्यासियों की पूजा में उनका दंड मुख्य भूमिका निभाता है, जो उनके और परमात्मा के बीच का माध्यम माना जाता है। दंडी संन्यासियों को किसी को छूने या स्वयं को छूने देने की अनुमति नहीं होती। शंकराचार्य बनने से पहले दंडी स्वामी बनने की प्रक्रिया अनिवार्य है।

दंडी स्वामी
Mahakumbh 2025

दंडी स्वामी कैसे बनते हैं?

इस परंपरा के तहत 12 वर्षों तक ब्रह्मचर्य का कठोर पालन करना आवश्यक होता है। दंडी स्वामी सनातन हिंदू धर्म के सर्वोच्च संन्यासी माने जाते हैं, जिनका पूरा जीवन समाज और राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित होता है। वर्तमान समय में देशभर में लगभग एक हजार दंडी स्वामी मौजूद हैं। शास्त्रों के अनुसार, दंड को भगवान विष्णु का प्रतीक माना जाता है और इसे ‘ब्रह्म दंड’ भी कहा जाता है। जब कोई ब्राह्मण संन्यास ग्रहण करता है और शास्त्रों द्वारा निर्धारित सभी नियमों का पालन करता है, तब वह इस पवित्र दंड को धारण करने का अधिकारी बनता है।

दंडी स्वामी कौन होते हैं?

मनुस्मृति जैसे धर्मग्रंथों में दंडी संन्यासियों का वर्णन मिलता है। वर्णाश्रम धर्म के अनुसार, व्यक्ति जीवन की तीन अवस्थाओं को पूर्ण करने के बाद संन्यास ग्रहण कर सकता है। दंडी संन्यासी केवल ब्राह्मण हो सकता है, और उसे भी माता-पिता तथा पत्नी के न रहने पर ही यह अनुमति दी जाती है। सच्चा संन्यास तभी संभव है जब सभी सांसारिक बंधनों और संबंधों को पूरी तरह त्याग दिया जाए।

दंडी स्वामी अखंडानंद तीर्थ के अनुसार, दंडी स्वामी बनने की पहली शर्त है कि व्यक्ति ब्राह्मण हो। इसके बाद, शालीग्राम का पूजन और विधि-विधान के साथ पूजा के उपरांत उसे दंडी स्वामी बनाया जाता है। दंडी स्वामी अग्नि का उपयोग नहीं करते और स्वयं भोजन नहीं बनाते। वे केवल तब भोजन ग्रहण करते हैं जब किसी ब्राह्मण या संत द्वारा आमंत्रित किए जाते हैं।

भगवान नारायण के अवतार माने जाते हैं दंडी स्वामी

स्वामी अखंडानंद का कहना है कि दंडी स्वामी नारायण के अवतार माने जाते हैं। इसलिए वे भिक्षा मांगने के बजाय केवल बुलावे पर ही भोजन ग्रहण करते हैं। स्वामी अधोक्षजानंद देव तीर्थ के अनुसार, दंडी स्वामी के दर्शन मात्र से नारायण के दर्शन के समान पुण्य मिलता है। कुंभ में दंडी स्वामियों की सेवा को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है, और उनकी सेवा के बिना कुंभ को अधूरा माना जाता है। साथ ही, दंडी स्वामी कभी स्वयं भोजन नहीं बनाते।

ऐसा कहा जाता है कि दंडी स्वामियों को धन की कमी का सामना नहीं करना पड़ता, क्योंकि स्वयं लक्ष्मी माता हमेशा उनके साथ रहती हैं। हालांकि, दंडी स्वामियों का जीवन बेहद कठिन होता है, क्योंकि वे स्वयं दंड धारण करते हैं। यह भी मान्यता है कि राम राज्य के दौरान किसी को भी दंड नहीं दिया जाता था, केवल दंडी स्वामी ही दंड धारण करते थे। तभी से उन्हें यह वरदान प्राप्त हुआ कि वे नारायण की तरह पूजित होंगे।

दंडी स्वामी के दंड का क्या महत्व है?

संन्यासी की दंडी भगवान विष्णु और उनकी दिव्य शक्तियों का प्रतीक मानी जाती है। सभी दंडी संन्यासी प्रतिदिन अपने दंड का अभिषेक, तर्पण और विधिवत पूजन करते हैं। वे अपने दंड को निर्धारित आवरण के साथ शुद्ध और सुरक्षित रखते हैं। पूजन के समय दंड को खोलकर रखा जाता है, जबकि अन्य समय पर इसे ढक कर रखना अनिवार्य होता है। यह माना जाता है कि संन्यासी के दंड में ब्रह्मांड की दिव्य शक्ति निहित होती है, इसलिए इसकी शुद्धता बनाए रखना अत्यंत आवश्यक है। इसके अलावा, दंड को अपात्र और अनधिकृत व्यक्तियों के समक्ष खुला नहीं रखना चाहिए।

देश में संतों के एक प्रमुख संप्रदाय, दंडी संन्यासियों का मानना है कि शंकराचार्य का चयन इसी परंपरा के अंतर्गत होता है। दंडी संन्यासी बनने के इच्छुक साधुओं को इस पद को प्राप्त करने से पहले अनेक कठिनाईयों और विधियों को पूरा करना होता है।

दंडी संन्यासियों के निधन के पश्चात उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है। इसका कारण यह है कि दीक्षा के समय ही उनके अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को संपन्न माना जाता है। यह मान्यता है कि दीक्षा के दौरान ही उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, इसलिए मृत्यु के पश्चात उन्हें आम व्यक्तियों की तरह जलाया नहीं जाता, बल्कि उनकी समाधि बनाई जाती है। अद्वैत सिद्धांत के अनुसार, दंडी संन्यासी निर्गुण और निराकार ब्रह्म की उपासना को ही अपने जीवन का प्रमुख लक्ष्य मानते हैं।

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