Mahabharat: भीष्म पितामह, जिन्हें इच्छा मृत्यु का अमूल्य वरदान प्राप्त था। यह वरदान उन्हें उनके पिता महाराज शांतनु से मिला था, और इसी वरदान के कारण वे बाणों की शैय्या पर पड़े रहने के बावजूद भी अपने प्राणों का त्याग नहीं कर सके, जब तक उन्होंने स्वयं नहीं चाहा।इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि भीष्म पितामह को यह वरदान क्यों मिला, इसका महाभारत के युद्ध पर क्या प्रभाव पड़ा और उन्होंने इच्छा मृत्यु का प्रयोग किन परिस्थितियों में किया।

भीष्म पितामह—देवव्रत से “भीष्म” बनने तक की कथा
भीष्म पितामह का जन्म देवव्रत नाम से हुआ था। वे हस्तिनापुर के महाराज शांतनु और नदी देवी गंगा के आठवें पुत्र थे। गंगा अपने पहले सात पुत्रों को जन्म देते ही नदी में प्रवाहित कर देती थीं, क्योंकि वे देवपुत्रों का अवतार थे जिन्हें पृथ्वी पर नहीं रहना था। जब आठवें पुत्र देवव्रत को वह जल में विसर्जित करने लगीं, तब महाराज शांतनु ने उन्हें रोक लिया और देवव्रत को अपने साथ रखा।
देवव्रत ने कम उम्र में ही वेद, शास्त्र, अस्त्र-शस्त्र, राजनीति और धर्म का गहन ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वे अत्यंत तेजस्वी, पराक्रमी, शूरवीर और बुद्धिमान थे।लेकिन उनका जीवन महाभारत में निर्णायक मोड़ तब आया जब उनके पिता शांतनु एक मत्स्य कन्या—सत्यवती—पर मोहित हो गए। परंतु सत्यवती के पिता ने शर्त रखी कि उनका पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा।
यह सुनकर देवव्रत ने जिस प्रतिज्ञा का संकल्प लिया, वह इतिहास में “भीष्म प्रतिज्ञा” के नाम से अमर हो गया।
भीष्म प्रतिज्ञा—जीवनभर ब्रह्मचर्य और सिंहासन-त्याग का व्रत
देवव्रत ने सत्यवती के पिता को आश्वासन देने के लिए दो कठोर प्रतिज्ञाएँ लीं—
- वे हस्तिनापुर के सिंहासन के अधिकार का त्याग करेंगे।
- जीवनभर ब्रह्मचारी रहेंगे ताकि उनकी कोई संतति हस्तिनापुर के भविष्य पर दावा न कर सके।
ऐसी भीषण और कठिन प्रतिज्ञा लेने वाला शायद ही कोई योद्धा इतिहास में हुआ हो। इसी वजह से देवव्रत का नाम “भीष्म” पड़ा—जो किसी भयंकर, अद्भुत और असाधारण प्रतिज्ञा का धारणकर्ता हो।
महाराज शांतनु ने क्यों दिया था “इच्छा मृत्यु” का वरदान?
जब महाराज शांतनु को पता चला कि उनके पुत्र देवव्रत ने सिर्फ उनकी खुशी के लिए इतना कठोर व्रत धारण किया, तो वे भाव-विभोर हो गए। उन्होंने पुत्र की प्रतिज्ञा से उत्पन्न भविष्य के कष्टों की कल्पना भी कर ली। इसलिए उन्होंने देवव्रत को एक वरदान दिया—इच्छा मृत्यु का वरदान।
इस वरदान के अनुसार—
जब तक भीष्म स्वयं नहीं चाहेंगे, तब तक उनका मृत्यु लोक से प्रस्थान नहीं होगा।
न तो युद्ध के घाव, न कोई शस्त्र, न कोई बीमारी—कुछ भी उनके प्राण नहीं ले सकता था। यह वरदान उन्हें देवों के समान बना देता था और महाभारत में उनकी भूमिका को अत्यंत चुनौतीपूर्ण और महत्वपूर्ण बना देता है।
महाभारत के युद्ध में भीष्म की भूमिका
महाभारत का महान युद्ध द्वापर युग में हुआ था और 18 दिनों तक चला। भीष्म पितामह इस युद्ध के सबसे वरिष्ठ, अनुभवी और शक्तिशाली योद्धाओं में थे। वे कौरवों के सेनापति बने क्योंकि वे हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति निष्ठावान थे।
हालांकि वे पांडवों से अपार स्नेह रखते थे, उन्होंने हमेशा अपने वचन और धर्म का पालन किया। यही उनके चरित्र का महान पक्ष है—धर्म, कर्तव्य और सत्य के प्रति अटूट प्रतिबद्धता।
भीष्म पांडवों के लिए क्यों थे सबसे बड़ी चुनौती?
पांडव जानते थे कि जब तक भीष्म युद्धभूमि में मौजूद हैं, कौरवों को हराना लगभग असंभव है। भीष्म पितामह के पास—
- अत्युत्तम युद्धकला
- देवदत्त दिव्यास्त्र
- अद्वितीय अनुभव
- और इच्छा मृत्यु का वरदान
—सब कुछ था जो उन्हें लगभग अजय बना देता था।
यही कारण था कि पांडवों को कृष्ण की सहायता से एक ऐसी रणनीति बनानी पड़ी, जो सत्ता, धर्म और युद्धनीति सभी से मेल खाती हो।
शिखंडी का प्रयोग—भीष्म को युद्ध से विराम देने की योजना
भीष्म पितामह शिखंडी पर शस्त्र उठाने की प्रतिज्ञा नहीं करते थे, क्योंकि उनका मनना था कि शिखंडी पूर्वजन्म में स्त्री थे। अर्जुन को यह ज्ञात था, इसलिए उन्होंने कृष्ण की सलाह पर शिखंडी को आगे करके भीष्म पर बाणों की वर्षा की।भीष्म जानते थे कि यह वही योजना है जो उन्हें युद्ध से हटाने के लिए बनाई गई है, और उन्होंने इसे स्वीकार भी किया।अर्जुन के तीरों से वे पूरी तरह बाणों की शैय्या पर गिर पड़े—उनका शरीर सैकड़ों बाणों से भेदित था।लेकिन तब भी वे मरे नहीं।
क्यों?
क्योंकि उनके पास इच्छा मृत्यु का वरदान था।
भीष्म ने अपने प्राण तुरंत क्यों नहीं त्यागे? इसके दो मुख्य कारण
(1) सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा
धर्मशास्त्रों के अनुसार, सूर्य जब उत्तरायण में प्रवेश करता है, तो यह अत्यंत शुभ समय माना जाता है। इस समय मृत्यु को प्राप्त हुआ व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी बनता है। भीष्म पितामह धर्म के उच्च आदर्शों को मानने वाले महान ऋषि के समान योद्धा थे। इसलिए वे मृत्यु के लिए इस शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करना चाहते थे।
जब भीष्म घायल हुए, उस समय सूर्य दक्षिणायन में था।
उत्तरायण आने में 58 दिन शेष थे।
इच्छा मृत्यु के वरदान के कारण वे इन 58 दिनों तक जीवित रह सके—यह मानव इतिहास का एक अद्भुत प्रसंग है जिसमें कोई व्यक्ति बाणों पर लेटा हुआ भी जीवित रह सकता है।
(2) हस्तिनापुर को सुरक्षित देखने की इच्छा
भीष्म में केवल युद्धकला ही नहीं, बल्कि अद्भुत दूरदृष्टि भी थी। वे हस्तिनापुर के रक्षक थे, और उन्होंने अनेक राजाओं को बड़ी मेहनत से इस सिंहासन पर बैठाया था।
वे चाहते थे कि—
- युद्ध का परिणाम स्पष्ट हो जाए
- धर्म की विजय हो
- भविष्य में हस्तिनापुर का शासन योग्य राजा के हाथ में जाए
जब उन्हें यह आश्वासन मिला कि युधिष्ठिर ही धर्म के अनुरूप राजा बनेंगे और कृष्ण स्वयं उनकी रक्षा करेंगे, तब उनका मन आश्वस्त हुआ।इसलिए भीष्म ने तब तक प्राण नहीं त्यागे जब तक उन्हें हस्तिनापुर का भविष्य सुरक्षित न दिख गया।
बाणों की शैय्या पर भीष्म—ज्ञान का महासागर
जब भीष्म उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थे, तब इस समय को उन्होंने केवल कष्ट सहने में नहीं बिताया। इसके विपरीत, उन्होंने धर्म, राजनीति, राज्यशास्त्र, समाज-व्यवस्था, शांति नीति, युद्धकला, राजा के गुण तथा जीवन के हर महत्वपूर्ण विषय पर युधिष्ठिर को अमूल्य ज्ञान प्रदान किया।इन शिक्षाओं को महाभारत में शांति पर्व और अनुशासन पर्व के रूप में संकलित किया गया है।यह ज्ञान आज भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना उस समय था।
उत्तरायण के दिन भीष्म का समाधि-प्रयाण
जब सूर्य उत्तरायण में प्रवेश कर गए और सारी परिस्थितियाँ धर्मानुकूल हुईं, तब भीष्म पितामह ने अपने प्राण त्यागने का निर्णय लिया। उन्होंने उत्तम योग पद्धति के अनुसार अपने प्राणों को ब्रह्मरंध्र से बाहर निकालकर मृत्यु को प्राप्त किया।उनका समाधि-प्रयाण भारतीय इतिहास का सबसे पवित्र और अद्वितीय उदाहरण माना जाता है।
भीष्म पितामह का जीवन हमें क्या सिखाता है?
भीष्म पितामह का चरित्र केवल युद्धकला या व्रत का प्रतीक नहीं—वे जीवन के हर क्षेत्र में अनुशासन और धर्म का गहन संदेश देते हैं।
वे सिखाते हैं—
- वचन का पालन सर्वोच्च धर्म है
- दूसरों के हित के लिए स्वयं का त्याग आदर्श पुरुष की पहचान है
- कर्तव्य को निभाना ही वास्तव में मनुष्य का धर्म है
- मृत्यु भी तब तक नहीं छू सकती जब तक मनुष्य का संकल्प अटल हो
- ज्ञान किसी भी पीड़ा से बड़ा होता है
उनका जीवन त्याग, निष्ठा और धर्मनिष्ठा का ऐसा दीपक है जो सदियों से चमक रहा है।
भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान केवल एक दिव्य शक्ति भर नहीं था, बल्कि उनकी चरित्र-शक्ति, त्याग, तपस्या और धर्मपरायणता का परिणाम था। उन्होंने इस वरदान का उपयोग केवल अपने लाभ के लिए नहीं किया, बल्कि उसका हर क्षण धर्म रक्षा और हस्तिनापुर के सुरक्षित भविष्य को सुनिश्चित करने में लगाया।
ALSO READ:-
Mahabharat| शिशुपाल कौन था| क्या थी उसके जन्म और मृत्यु तक की कथा