Hariyali Teej Vrat Katha: हरियाली तीज व्रत से जुड़ी पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि माता पार्वती ने इस व्रत को कठिन तप और श्रद्धा से किया था, जिससे वे भगवान शिव को अपने पति रूप में प्राप्त कर सकीं। यह व्रत विशेष रूप से महिलाओं द्वारा सौभाग्य और दांपत्य सुख की प्राप्ति के लिए किया जाता है। सावन मास में मनाया जाने वाला यह पर्व देवी पार्वती को समर्पित होता है। भविष्य पुराण में वर्णित है कि तीज यानी श्रावण शुक्ल तृतीया तिथि को देवी पार्वती की आराधना करने से विशेष फल प्राप्त होता है।
इसके अलावा एक अन्य कथा के अनुसार, चंद्रमा की 27 पत्नियों में से रोहिणी ने तृतीया व्रत का पालन किया था, जिससे चंद्रमा का विशेष प्रेम उन्हें प्राप्त हुआ। यही कारण है कि तृतीया व्रत को अत्यंत शुभ और फलदायक माना जाता है।
सावन माह की तृतीया तिथि को मनाई जाने वाली हरियाली तीज का विशेष महत्व बताया गया है। मान्यता है कि जो कुंवारी कन्याएं और विवाहित महिलाएं इस दिन श्रद्धा से देवी पार्वती और भगवान शिव की पूजा करती हैं तथा व्रत कथा को श्रद्धापूर्वक सुनती हैं, उन्हें इच्छानुसार जीवनसाथी की प्राप्ति होती है और विवाहित स्त्रियों का सुहाग दीर्घायु बना रहता है। पुराणों में उल्लेख है कि देवी पार्वती और भगवान शिव ने इस तिथि को स्त्रियों के लिए ऐसा व्रत घोषित किया, जिससे वे विवाहिक जीवन में प्रेम, समर्पण और आनंद प्राप्त कर सकें।
हरियाली तीज व्रत कथा (Hariyali Teej Vrat Kath)
हरियाली तीज की पौराणिक कथा के अनुसार, देवी पार्वती अपने पूर्व जन्म में दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के रूप में जन्मी थीं। उस समय उन्होंने अपने पिता दक्ष की इच्छा के विरुद्ध जाकर भगवान शिव से विवाह किया था। दक्ष प्रजापति का मन था कि वे अपनी पुत्री सती का विवाह भगवान विष्णु के साथ कराएं, लेकिन सती बचपन से ही भगवान शिव को अपना पति मान चुकी थीं और उन्होंने कठोर तप करके उन्हें पति रूप में प्राप्त किया।
अंततः पिता को पुत्री की इच्छा के आगे झुकना पड़ा और उन्होंने भगवान शिव से सती का विवाह कर दिया। परंतु विवाह के बाद भी दक्ष प्रजापति के मन में भगवान शिव के प्रति सम्मान नहीं था। वे लगातार शिव का विरोध करते रहे और उन्हें स्वीकार नहीं कर पाए। इसी कारण वे शिवद्रोही बने रहे।
एक बार की बात है, जब दक्ष प्रजापति ने एक अत्यंत भव्य और विशाल यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में उन्होंने समस्त देवी-देवताओं, ऋषियों, गंधर्वों, किन्नरों और नागों को आमंत्रित किया। त्रिलोक में उस यज्ञ की चर्चा तेजी से फैलने लगी और चारों ओर उसकी भव्यता की प्रशंसा होने लगी। यह समाचार जब देवी सती के कानों तक पहुँचा, तो उन्होंने देखा कि इस यज्ञ में उनके और भगवान शिव को आमंत्रण नहीं भेजा गया है।
अपने पिता द्वारा इस प्रकार अनदेखा किया जाना देवी सती के लिए अत्यंत दुखद था। उन्हें यह पीड़ा होने लगी कि उनके ही पिता ने न तो उन्हें बुलाया और न ही उनके पति भगवान शिव को। इसके बावजूद, देवी सती के मन में अपने पिता के यज्ञ में जाने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हो गई। उन्होंने बिना आमंत्रण के ही यज्ञ में जाने का निश्चय कर लिया और इस बात को लेकर भगवान शिव से आग्रह करने लगीं।
तब महादेव ने अत्यंत शांत भाव से देवी सती से कहा, “हे देवी, बिना बुलावे किसी के घर जाना मर्यादा और सम्मान की दृष्टि से उचित नहीं होता। यह न केवल आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा सकता है, बल्कि आपके लिए अपमानजनक भी हो सकता है। मेरी सलाह है कि आप इस यज्ञ में न जाएं।”
भगवान शिव ने अपने अनुभव और विवेक से देवी सती को समझाने का प्रयास किया, लेकिन सती का मन अपने पिता से मिलने और यज्ञ में सम्मिलित होने की जिद पर अड़ा रहा।
देवी सती भगवान शिव के समझाने के बावजूद अपनी बात पर अडिग रहीं और उनसे स्पष्ट कह दिया, “आप चाहे यज्ञ में न जाएं, लेकिन मैं अपने पिता के घर अवश्य जाऊंगी।” शिव की आज्ञा की अनदेखी कर, सती अकेले ही अपने मायके पहुंच गईं। जब दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री को बिना निमंत्रण यज्ञ में आया हुआ देखा, तो न केवल उन्होंने देवी सती की अवमानना की, बल्कि उनके पति भगवान शिव का भी सार्वजनिक रूप से अपमान किया।
इस अपमानजनक व्यवहार से देवी सती अत्यंत आहत हुईं। उन्हें उसी क्षण भगवान शिव की चेतावनियों की याद आई और यह बोध हुआ कि उन्होंने अपने आराध्य और पति के वचनों की अवहेलना करके बहुत बड़ी भूल की है। सती का मन पश्चाताप से भर उठा और उन्होंने स्वयं से कहा, “मैंने महादेव की बात नहीं मानी, और आज मेरे कारण उनके मान-सम्मान को ठेस पहुँची है। अब मैं उनके सामने कैसे जाऊंगी?”
अपमान और पश्चाताप की ज्वाला में जलती हुई सती ने उसी क्षण यज्ञ स्थल पर उपस्थित अग्निकुंड की ओर देखा, और शिव का ध्यान करते हुए उसी यज्ञ अग्नि में कूद गईं। इसी के साथ उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर आत्मदाह कर लिया।
जब देवी सती ने यज्ञ कुंड में आत्मदाह किया, तब यह समाचार भगवान शिव तक पहुंचा। सती के देह त्याग की खबर सुनते ही शिव अत्यंत क्रोधित हो उठे। उनके क्रोध की तीव्रता इतनी प्रचंड थी कि उन्होंने अपने जटाओं से वीरभद्र नामक एक शक्तिशाली गण को प्रकट किया। वीरभद्र ने प्रकट होते ही पूरे यज्ञ स्थल पर कहर बरपा दिया और दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ को विध्वंस कर नष्ट कर दिया। यज्ञ में उपस्थित देवता, ऋषि और अतिथि सभी भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे। वीरभद्र ने दक्ष को भी दंडित किया।
इस घटना के बाद भगवान शिव गहरे शोक और वैराग्य में चले गए। वे संसार से विमुख होकर घोर तपस्या में लीन हो गए। इधर देवी सती को अपने निर्णय की भारी कीमत चुकानी पड़ी। उन्होंने भगवान शिव की आज्ञा की अवहेलना की थी, और उसी का परिणाम था कि उन्हें कई जन्मों तक पुनर्जन्म लेना पड़ा। मान्यता है कि देवी सती के कुल 108 जन्म हुए। इन 107 जन्मों में उन्होंने निरंतर तपस्या की, ताकि वे पुनः भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त कर सकें।
अंततः 108वें जन्म में देवी सती ने हिमालय और मैना के घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में वे पार्वती कहलाईं। यहीं से माता पार्वती की वह तपस्या शुरू हुई, जिसने एक बार फिर उन्हें शिव से मिलने और सृष्टि के सबसे शुभ विवाह के सूत्र में बंधने का मार्ग प्रशस्त किया।
अपने 108वें जन्म में माता पार्वती ने यह संकल्प लिया कि वे इस बार भी भगवान शिव को ही अपने पति रूप में प्राप्त करेंगी। इस उद्देश्य से उन्होंने सावन मास में पवित्र भावना और अटल श्रद्धा के साथ मिट्टी से एक शिवलिंग की स्थापना की। फिर उस शिवलिंग की विधिपूर्वक पूजा करते हुए कठोर तपस्या में लीन हो गईं। उनकी यह तपस्या अत्यंत कठिन और लंबे समय तक चली, किंतु उनकी भक्ति में कोई कमी नहीं आई।
माता पार्वती की तपस्या, प्रेम और समर्पण से अंततः भगवान शिव प्रसन्न हो गए। हरियाली तीज के पावन दिन स्वयं महादेव प्रकट हुए और देवी पार्वती को आशीर्वाद देते हुए कहा कि, “तुम मेरे अर्धांगिनी रूप में प्रतिष्ठित होओगी।” इस प्रकार हरियाली तीज का दिन माता पार्वती के लिए वह शुभ दिन बन गया जब उन्हें अपने आराध्य भगवान शिव पति रूप में प्राप्त हुए।
इसके पश्चात भगवान शिव ने माता पार्वती से कहा कि, “जो भी कुंवारी कन्या इस दिन मेरी और तुम्हारी श्रद्धापूर्वक पूजा करते हुए हरियाली तीज का व्रत रखेगी, उसे उसकी मनोकामना अनुसार योग्य जीवनसाथी की प्राप्ति होगी। साथ ही जो विवाहित स्त्रियाँ इस व्रत को पूर्ण श्रद्धा और आस्था से करेंगी, उनके वैवाहिक जीवन में प्रेम, समर्पण और सुख-शांति बनी रहेगी।”
इस प्रकार हरियाली तीज व्रत को नारी जीवन में सौभाग्य, प्रेम और संतुलन की प्रतीक माना जाता है और यह व्रत आज भी पूरे श्रद्धा-भक्ति के साथ मनाया जाता है।
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