Ganesh Chaturthi Vrat Katha : गणेश चतुर्थी का पर्व भगवान गणेश के जन्मोत्सव के रूप में पूरे श्रद्धा और विधि-विधान के साथ मनाया जाता है। इस दिन भक्तजन अपने घरों में गणेश जी की मूर्ति की स्थापना एक, दो, तीन या नौ दिनों के लिए करते हैं। पूजा के दौरान गणेश कथा का पाठ करना अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। ऐसी मान्यता है कि इस कथा के श्रवण और पाठ से पांडवों को उनका खोया हुआ राज्य पुनः प्राप्त हुआ था। आइए, आप भी इस पावन कथा को विस्तारपूर्वक जानें और इसका लाभ प्राप्त करें।

गणेश चतुर्थी व्रत कथा (Ganesh Chaturthi Vrat Katha)
नैमिषारण्य तीर्थ में एक बार शौनक और अन्य अट्ठासी हजार महर्षियों ने धर्मशास्त्रों के महान ज्ञाता सूतजी महाराज से अत्यंत जिज्ञासा भाव से प्रश्न किया— “हे महामुनि! कृपया यह बताएं कि मनुष्यों के समस्त कार्य बिना किसी विघ्न के पूर्ण कैसे हो सकते हैं? धन-संपत्ति की प्राप्ति में सफलता किस प्रकार संभव है? संतान सुख, सौभाग्य और संपन्नता की वृद्धि कैसे हो सकती है? साथ ही पति-पत्नी के संबंधों में कलह की स्थिति से कैसे बचा जा सकता है? भाई-भाई के बीच उत्पन्न होने वाले वैमनस्य और उदासीनता को दूर कर सौहार्द्र कैसे स्थापित किया जा सकता है?”
ऋषियों ने आगे पूछा, “हे महामुनि! विद्यार्थी शिक्षा में, व्यापारी अपने व्यापार में, कृषक खेती-बाड़ी में और राजा अपने शत्रुओं पर विजय पाने में सफलता कैसे प्राप्त करें? ऐसा कौन-सा पूजन या साधन है जिससे मनुष्य अपने जीवन में वांछित फल प्राप्त कर सके? कृपया इन सभी विषयों पर विस्तार से प्रकाश डालिए।”
सूतजी ने उत्तर देते हुए कहा— “हे महान ऋषियों! प्राचीन काल की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना स्मरण आती है। जब महाभारत का युद्ध आरंभ होने वाला था और कौरव-पांडव सेनाएं रणभूमि में आमने-सामने खड़ी थीं, तब पांडवों के ज्येष्ठ भ्राता धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से यही जिज्ञासा प्रकट की थी। उन्होंने पूछा था, ‘हे माधव! हमें यह बताइए कि हमारी विजय बिना किसी विघ्न के कैसे सुनिश्चित हो सकती है? किस देवता की आराधना से हम अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं और विजय प्राप्त कर सकते हैं?’”
भगवान श्रीकृष्ण युधिष्ठिर को उत्तर देते हुए कहते हैं, “हे पराक्रमी युधिष्ठिर! आप देवी पार्वती के मैल से उत्पन्न हुए श्रीगणेश की श्रद्धा से पूजा करें। उनकी आराधना से निश्चित ही आपको पुनः अपना राज्य प्राप्त होगा।”
यह सुनकर युधिष्ठिर ने विनम्रतापूर्वक प्रश्न किया, “हे प्रभु! गणेश जी की पूजा की विधि क्या है? किस तिथि को उनकी आराधना करने से सिद्धि की प्राप्ति होती है?”
इस पर श्रीकृष्ण ने विस्तारपूर्वक समझाया, “हे राजन! गणेश पूजन के लिए सबसे उत्तम दिन भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि है। इसी दिन भगवान गणेश की पूजा विशेष फलदायी मानी जाती है। इसके अतिरिक्त, श्रावण, अगहन और माघ महीनों की चतुर्थी तिथि पर भी गणेशजी का पूजन किया जा सकता है। परंतु यदि आपके मन में श्रद्धा और भक्ति का भाव हो, तो भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से ही गणेश पूजन आरंभ करना श्रेष्ठ रहेगा।”
फिर पूजन विधि बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं, “व्रतधारी को चाहिए कि वह प्रातःकाल शीघ्र उठकर सफेद तिल के जल से स्नान करे। इसके उपरांत दोपहर के समय अपनी सामर्थ्यानुसार सोने की गणेश मूर्ति तैयार कराए— चाहे वह चार तोले की हो, दो तोले की, एक तोले की या आधे तोले की।
यदि स्वर्णमूर्ति बनवाना संभव न हो तो चांदी की प्रतिमा का निर्माण करवा लेना चाहिए। और यदि वह भी सामर्थ्य से बाहर हो, तो शुद्ध मिट्टी से गणेश जी की मूर्ति बनवा सकते हैं। किंतु यह ध्यान रहे कि यदि कोई व्यक्ति आर्थिक रूप से सक्षम हो, तो उसे पूजा में कंजूसी नहीं करनी चाहिए। श्रीगणेश को ‘वरविनाशक’ और ‘सिद्धिविनायक’ के नाम से इसलिए जाना जाता है क्योंकि वे भक्तों की समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। भाद्रपद शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन गणेश पूजन करने से इच्छित फल की प्राप्ति होती है, इसी कारण पृथ्वी लोक में वे ‘सिद्धिविनायक’ के रूप में पूजित हैं।
गणेश ध्यान की विधि इस प्रकार है— जिनके एक दंत है, विशाल सूप के समान कान हैं, हाथी जैसे मुख हैं, चार भुजाएं हैं, जिनके हाथों में पाश और अंकुश हैं— ऐसे श्रीसिद्धिविनायक का हम ध्यान करते हैं। पूजन करते समय मन को एकाग्रचित्त रखें।
सबसे पहले भगवान गणेश को पंचामृत से स्नान कराएं, फिर शुद्ध जल से उनका अभिषेक करें। इसके उपरांत प्रेमपूर्वक उन्हें गंध अर्पित करें। आवाहन करके पाद्य, अर्घ्य आदि प्रदान करें। फिर दो लाल वस्त्र श्रद्धा से चढ़ाएं। इसके पश्चात पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य समर्पित करें। तत्पश्चात एक पान के पत्ते पर थोड़ी मात्रा में स्वर्ण (या यदि संभव न हो तो रुपये, अठन्नी आदि) अर्पित करें।
इसके बाद गणेश जी को 21 दूब (दूर्वा) अर्पित करें। अब नीचे दिए गए नामों के साथ भक्ति भाव से प्रत्येक नाम पर दो दूब चढ़ाएं। इन नामों का उच्चारण करते हुए रोली, अक्षत और पुष्प भी अर्पित करें:
हे गणाधिप! हे उमापुत्र! हे पाप विनाशक! हे विनायक! हे ईशनंदन! हे सर्वसिद्धिदाता! हे एकदंत! हे गजमुख! हे मूषकवाहन! हे स्कंदकुमार के ज्येष्ठ भ्राता! हे गजानन महाराज!
इन सभी नामों के साथ दूर्वा समर्पण कर भगवान गणेश को वंदन करें और उनसे अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति की प्रार्थना करें। इस विधि से किया गया पूजन न केवल सिद्धि और सफलता प्रदान करता है, बल्कि जीवन की समस्त बाधाओं का नाश भी करता है।
हे देवाधिदेव गणेश जी! कृपया मेरी अर्पित की गई दूब को स्वीकार करें, मैं बारंबार प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरी भक्ति को सहर्ष स्वीकारें। इसके उपरांत, गणेशजी को प्रिय माने जाने वाले भुने हुए गेहूं और गुड़ (या गुड़ और धनिया) का नैवेद्य अर्पित करें। फिर शुद्ध देशी घी से बने इक्कीस लड्डू लेकर श्रद्धा के साथ भगवान गणेश के समक्ष रखते हुए कहें – “हे कुरुकुल के दीपक!”, और उन्हें भक्ति सहित समर्पित करें।
इन लड्डुओं में से दस लड्डू योग्य ब्राह्मण को दान कर दें, दस को अपने लिए भोजन हेतु सुरक्षित रखें और एक लड्डू गणेश जी के सामने नैवेद्य रूप में समर्पित कर वहीं रहने दें। यदि आपने स्वर्ण प्रतिमा का पूजन किया है तो वह भी विधिपूर्वक ब्राह्मण को दान कर दें। समस्त पूजन विधि संपन्न करने के पश्चात अपने इष्टदेव का पूजन करें, तत्पश्चात ब्राह्मण को ससम्मान भोजन कराकर स्वयं भी भोजन ग्रहण करें।
इस बात का विशेष ध्यान रखें कि इस दिन मूंगफली, वनस्पति तेल, बरे आदि तले हुए खाद्य पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। पूजा के समापन पर अधोवस्त्र (धोती आदि) और उत्तरीय वस्त्र (अंगवस्त्र) सहित गणेश जी की मूर्ति को किसी विद्वान ब्राह्मण को दान कर देना चाहिए ताकि सारे विघ्न समाप्त हों और जीवन में मंगलकारी ऊर्जा का प्रवेश हो।
हे धर्मराज युधिष्ठिर! जब आप इस विधि से श्री गणेश जी की आराधना करेंगे, तो निश्चय ही पांडवों को विजय प्राप्त होगी। इसमें किंचित मात्र भी संदेह नहीं है; यह मेरी पूर्ण सत्य वाणी है। स्मरण रहे कि जब कोई व्यक्ति गुरु से दीक्षा ग्रहण करता है, चाहे वह वैष्णव हो या किसी अन्य संप्रदाय से हो, वह सर्वप्रथम गणेश पूजन से ही आरंभ करता है।
गणेश जी की पूजा करने से विष्णु, शिव, सूर्य, पार्वती (दुर्गा), अग्नि आदि सभी प्रमुख देवताओं की भी आराधना हो जाती है। यह पूजन चण्डिका और अन्य मातृ शक्तियों को भी प्रसन्न करता है। इसलिए हे ऋषिगण! जो भक्तिभाव से श्रीसिद्धिविनायक गणेश जी का पूजन करता है, उसे उनके आशीर्वाद से जीवन के सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है।
भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को शिवलोक में गणेश चतुर्थी का पूजन संपन्न हुआ था। इस विशेष दिन पर श्रद्धापूर्वक स्नान, दान, उपवास और विधिवत पूजन करने से भगवान गणेश की कृपा से सौगुना फल प्राप्त होता है।
हे धर्मराज युधिष्ठिर! इस दिन चंद्रमा के दर्शन करना वर्जित माना गया है। अतः अपने कल्याण और दोषों से बचाव हेतु चतुर्थी की पूजा दोपहर से पूर्व ही संपन्न कर लेनी चाहिए। ऐसा कहा गया है कि जब सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करता है और चतुर्थी तिथि शुक्ल पक्ष की होती है, तब चंद्रदर्शन करने से व्यक्ति पर चोरी, व्यभिचार, हत्या आदि जैसे झूठे आरोपों का कलंक लग सकता है।
इसी कारण इस दिन चंद्रमा के दर्शन निषिद्ध हैं। किंतु यदि अनजाने में चंद्रदर्शन हो जाए, तो एक शुद्ध प्रायश्चित्त मंत्र का उच्चारण करना चाहिए:
सिंह ने प्रसेनजित को मार डाला और जाम्बवान ने सिंह को यमालय भेज दिया। हे बेटा! रोओ मत, तुम्हारी स्यमन्तक मणि यह है।
इस श्लोक का भावपूर्वक जप करने से चंद्रदर्शन के दोष से मुक्ति प्राप्त होती है और कलंक का प्रभाव समाप्त हो जाता है। अतः गणेश चतुर्थी के दिन इन नियमों का पालन करके भक्तजन श्रीगणेश की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
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