आज के समय में कई लोग भगवान में आस्था रखते हैं, तो कई लोग नहीं। इतिहास में कुछ ऐसे भक्त हुए हैं जिनकी भक्ति ने उन्हें अमर बना दिया। चैतन्य महाप्रभु, गोपाल भट्ट गोस्वामी, तुलसीदास जैसे महान भक्त इसका उदाहरण हैं। इन्हीं में से एक महान भक्त का नाम था सूरदास।
कौन थे सूरदास?
सूरदास 16वीं शताब्दी के एक महान संत, कवि और संगीतकार थे। वे भगवान कृष्ण को समर्पित अपनी भक्ति-प्रधान कविताओं और गीतों के लिए प्रसिद्ध हैं। ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म 1478 के आसपास दिल्ली के निकट स्थित सीही गाँव में हुआ था। बचपन में ही घर छोड़ने वाले सूरदास महान संत वल्लभाचार्य के शिष्य बने, जहाँ उनकी कृष्ण भक्ति और भी गहरी हो गई।
सूरदास को उनकी गीतात्मक कविताओं और ब्रजभाषा में रचित अद्भुत रचनाओं के लिए जाना जाता है। उनकी रचनाएँ “सूरसागर” (सूर का महासागर) के नाम से प्रसिद्ध हैं, जो लगभग 100,000 कविताओं का संग्रह मानी जाती हैं। हालांकि, इनमें से केवल लगभग 8,000 कविताएँ ही आज उपलब्ध हैं। इन कविताओं में भगवान कृष्ण के बालपन, युवावस्था और उनके दिव्य लीलाओं का सुंदर वर्णन किया गया है।
सूरदास का भक्ति साहित्य और संगीत में योगदान भारतीय संस्कृति पर गहरा प्रभाव डालता है। उनके भजन आज भी पूरे भारत के मंदिरों और घरों में श्रद्धा के साथ गाए जाते हैं। सूरदास ने अपने जीवन के 73 वर्ष ब्रज में बिताए थे।
सूरदास जी के निवास स्थल को चंद्रसरोवर के नाम से जाना जाता है। यहीं से वे प्रतिदिन श्रीनाथजी मंदिर, जतीपुरा में कीर्तन गायन के लिए जाया करते थे। उनका लक्ष्य भगवान श्रीकृष्ण के लिए 1,25,000 पदों की रचना करना था। इनमें से उन्होंने स्वयं एक लाख पदों की रचना पूरी कर ली थी। उनकी निःस्वार्थ भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें दर्शन दिए और उनकी इच्छा पूछी।
सूरदास जी ने विनम्रता से कहा, “प्रभु, मेरी इच्छा थी कि मैं आपके लिए सवा लाख पद लिखूं। अभी तक एक लाख पूरे हो चुके हैं।” यह सुनकर भगवान श्रीकृष्ण ने शेष 25,000 पद स्वयं लिखे। भगवान द्वारा रचित इन पदों में “सूर श्याम” की छाप मिलती है, जबकि सूरदास जी द्वारा रचित पदों में “सूरदास,” “सूरजदास,” और “सूरसागर” के हस्ताक्षर देखे जाते हैं।
यही वह स्थान है, जहां सूरदास जी ने अपना देह त्याग किया। उनकी कुटिया, जिसे “सुर कुटी” कहा जाता है, आज भी चंद्रसरोवर में स्थित है। यहीं बैठकर उन्होंने लाखों पदों की रचना की थी, जो उनकी भक्ति और साहित्यिक योगदान का प्रतीक हैं। सुर कुटी सूरदास जी की निस्वार्थ भक्ति और साधना का जीवंत प्रमाण है। इस कुटी में स्थित एक ऐतिहासिक वृक्ष उनके समय का साक्षी है, जिसके नीचे वे ध्यान लगाया करते थे। इस वृक्ष को 500 से अधिक वर्ष पुराना माना जाता है और इसे पर्यटन विभाग द्वारा संरक्षित किया जा रहा है।
वृक्ष के पास ही सूरदास जी का समाधि स्थल स्थित है, जहां उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली थी। कहा जाता है कि यहीं बैठकर उन्होंने अपने अंतिम पद की रचना की थी। यह स्थान उनकी भक्ति और रचनात्मकता की अमर गाथा को संजोए हुए है।
चन्द्रसरोवर में श्री कृष्ण ने किया था दिव्य महारास
चन्द्रसरोवर वह पवित्र स्थान है जहाँ भगवान श्री कृष्ण ने अपनी बाल लीलाओं का अद्भुत प्रदर्शन किया। कथा के अनुसार, एक दिन श्री कृष्ण ने मैया यशोदा से चंद्रमा को पाने की जिद की। मां यशोदा ने चांदी की थाली में जल डालकर चंद्रमा की परछाई दिखाई। श्री कृष्ण ने उस थाली को खींचकर भूमि पर पटक दिया, और उसी स्थान पर चन्द्रसरोवर का प्राकट्य हुआ।
यहीं पर भगवान ने 33 करोड़ गोपियों के साथ दिव्य महारास किया। इस अद्भुत घटना को देखने के लिए स्वर्गीय चंद्रमा नहीं, बल्कि गोलोक धाम के कोटकी नाम के चंद्रमा पधारे। यह महारास गोपनीय था, जिसे देखने की अनुमति किसी को नहीं थी। लेकिन महादेव अपने आप को रोक नहीं सके। यमुना तट पर स्नान कर उन्होंने गोपी का रूप धारण कर महारास में प्रवेश किया।
श्री कृष्ण ने उन्हें तुरंत पहचान लिया और कहा, “यह गोपी नहीं, गोपा हैं।” तभी से इस स्थान पर गोपेश्वर महादेव का पूजन प्रारंभ हुआ। गोपेश्वर महादेव मंदिर में शिवजी का स्वरूप गोपी रूप में होता है, जहाँ वे 16 श्रृंगार धारण करते हैं।
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