भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक 16 अर्थ सहित | एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 16 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 16 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन का मार्गदर्शन करने वाली अनुपम शिक्षाओं का भंडार है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिए, वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने महाभारत काल में थे। गीता का तीसरा अध्याय “कर्मयोग” पर आधारित है। भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक 16 हमें कर्मचक्र और यज्ञकर्म के महत्व को समझने की प्रेरणा देता है। यह श्लोक बताता है कि जो व्यक्ति वेदों में वर्णित यज्ञकर्मों का पालन नहीं करते, वे न केवल पाप का भागी बनते हैं, बल्कि उनका जीवन व्यर्थ हो जाता है।

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भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक 16: मूल पाठ, अर्थ और भाव

भगवत गीता अध्याय 3 श्लोक 16

मूल श्लोक 3.16:

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |
आघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ||

शब्दार्थ:

  • एवम् – इस प्रकार
  • प्रवर्तितं चक्रं – वेदों द्वारा स्थापित चक्र
  • न अनुवर्तयति – जो पालन नहीं करता
  • इह – इस संसार में
  • अघायुः – पापयुक्त जीवन
  • इन्द्रियारामः – इन्द्रियों के सुख में लिप्त
  • मोघं – व्यर्थ
  • पार्थ – हे अर्जुन
  • स जीवति – वह जीवित तो है, पर व्यर्थ है

हिंदी भावार्थ:

हे अर्जुन! जो मनुष्य वेदों द्वारा स्थापित यज्ञकर्म के इस चक्र का पालन नहीं करता, वह पापमय जीवन जीता है। वह इन्द्रिय भोगों में लिप्त रहता है और उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है।

वेदों में नियमित कर्मों का विधान है और ये साक्षात् श्रीभगवान् (परब्रह्म) से प्रकट हुए हैं | फलतः सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है |

तात्पर्य: क्यों आवश्यक है यज्ञकर्म?

भगवान श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें यह सिखा रहे हैं कि जीवन का उद्देश्य केवल भोग नहीं, बल्कि कर्तव्य पालन और यज्ञ भावना से कर्म करना है। यज्ञकर्म का अर्थ केवल अग्निहोत्र या हवन करना नहीं, बल्कि जीवन के हर कर्म को ईश्वर के लिए समर्पित करना है।

वेदों में क्या कहा गया है?

“अस्य महतो भूतस्य निश्वसितम् एतद् यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः”
(बृहदारण्यक उपनिषद् 4.5.11)

यह श्लोक कहता है कि चारों वेद भगवान के श्वास से उत्पन्न हुए हैं। अतः वेदों में जो भी आदेश हैं, वे स्वयं भगवान के निर्देश हैं। इसलिए वेदों द्वारा निर्देशित कर्म ही धर्म है।

यज्ञचक्र: सृष्टि की आत्मा

श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 3.14 में यह बताया गया है कि:

  • यज्ञ से वर्षा होती है
  • वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है
  • अन्न से प्राणी जीवित रहते हैं
  • प्राणी यज्ञ हेतु कर्म करते हैं

यह एक दिव्य चक्र है जिसे यज्ञचक्र कहा गया है। इसी चक्र से सृष्टि की व्यवस्था चलती है। अगर कोई मनुष्य इस चक्र का पालन नहीं करता, तो वह न केवल अपनी आत्मा के विरुद्ध कार्य करता है, बल्कि सृष्टि की व्यवस्था में भी बाधा डालता है।

आधुनिक जीवन में गीता अध्याय 3 श्लोक 16 की प्रासंगिकता

एक सामान्य गृहस्थ, किसान, शिक्षक और माता — सभी निःस्वार्थ भाव से अपने कर्म करते हुए, उनके सिर के ऊपर श्रीकृष्ण की छवि एक दिव्य दृष्टि से उन्हें आशीर्वाद देती हुई, और उनके कर्मों से निकलती ऊर्जा यज्ञ के रूप में आकाश की ओर जाती है।

आज का मनुष्य भौतिक सुखों की खोज में आत्मा की पुकार को अनसुना कर देता है। मोबाइल, इंटरनेट, पैसा और भौतिक सुविधा की अंधी दौड़ ने उसे कर्मचक्र से काट दिया है।

अगर कोई इस चक्र को नहीं अपनाता तो:

  • उसका जीवन इन्द्रिय सुख तक ही सीमित रह जाता है
  • वह समाज के लिए उपयोगी नहीं बनता
  • आत्मिक दृष्टि से वह अंधकार में चला जाता है
  • अंत में, उसका जीवन पशु के समान हो जाता है – केवल खाना, पीना और सोना

कर्म और यज्ञ का संबंध

श्रीकृष्ण के अनुसार, कर्म वही पवित्र है जो यज्ञ भावना से किया जाए। यानी:

  • कोई शिक्षक ईमानदारी से पढ़ाए → यज्ञ
  • कोई माँ स्नेह से बच्चों की सेवा करे → यज्ञ
  • कोई श्रमिक परिश्रम से काम करे → यज्ञ

जब कर्म में निःस्वार्थता होती है, सेवा भावना होती है, तो वह यज्ञ बन जाता है।

यज्ञकर्म के लाभ

जो व्यक्ति यज्ञचक्र का पालन करता है, उसे प्राप्त होते हैं अनेक लाभ:

  • मन की शुद्धि और आत्मा की उन्नति
  • समाज में सम्मान और संतुलन
  • प्रकृति से सामंजस्य
  • आत्मा की यात्रा ईश्वर की ओर
  • जन्म-जन्मांतर के बंधनों से मुक्ति

मनुष्य की विशेषता: कर्म का चयन

सृष्टि में केवल मनुष्य को ही यह क्षमता मिली है कि वह कर्म का चयन कर सके। पशु अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करते हैं। लेकिन मनुष्य चाहे तो—

  • सृष्टि के चक्र में योगदान देकर ईश्वर की ओर बढ़ सकता है
  • या फिर केवल भोग में फंसकर पतन की ओर जा सकता है

गीता का सन्देश स्पष्ट है:

“कर्तव्य कर्म का पालन करते हुए यज्ञ भावना से जीवन जीना ही सच्चा जीवन है।”

निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक मनुष्य को उसके जीवन का उद्देश्य समझाने के लिए अत्यंत प्रभावशाली है। यह हमें बताता है कि हम केवल भोग के लिए नहीं, बल्कि सेवा, त्याग और यज्ञभावना के साथ जीवन जीने के लिए हैं। जो वेदों द्वारा स्थापित कर्मचक्र का पालन करता है, वही सच्चा धर्मात्मा और ईश्वरप्रिय होता है।

तो आइए, श्रीकृष्ण के इस उपदेश को अपने जीवन में उतारें और यज्ञभाव से कर्म करते हुए, एक सार्थक, पवित्र और दिव्य जीवन की ओर अग्रसर हों।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

FAQs:

प्र1: श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक 3.16 का क्या सार है?

उत्तर:
इस श्लोक का सार है कि जो व्यक्ति वेदों द्वारा निर्धारित यज्ञकर्म के चक्र का पालन नहीं करता, वह पापमय जीवन जीता है और उसका जीवन व्यर्थ होता है। ऐसे व्यक्ति केवल इन्द्रिय भोग में रत रहते हैं और आत्मिक उन्नति से वंचित रहते हैं।

प्र2: यज्ञकर्म का क्या अर्थ है?

उत्तर:
यज्ञकर्म का अर्थ है ऐसा कर्म जो भगवान को समर्पित हो, निःस्वार्थ भाव से किया गया हो और समाज व सृष्टि के हित में हो। केवल अग्निहोत्र नहीं, बल्कि सेवा, दान, परिश्रम और धर्मपूर्वक किया गया हर कर्म यज्ञकर्म हो सकता है।

प्र3: क्या यज्ञ केवल धार्मिक अनुष्ठान है?

उत्तर:
नहीं, यज्ञ का अर्थ व्यापक है। हर ऐसा कर्म जो स्वार्थ रहित हो, जिसमें दूसरों के कल्याण की भावना हो और जो ईश्वर के निर्देशानुसार हो — वह यज्ञ है। जैसे—माता-पिता का सेवा भाव, शिक्षक की निष्ठा, श्रमिक की मेहनत आदि।

प्र4: इस श्लोक में ‘चक्र’ का क्या तात्पर्य है?

उत्तर:
यह चक्र सृष्टि के संचालन की एक दिव्य व्यवस्था है — यज्ञ से वर्षा, वर्षा से अन्न, अन्न से जीवों का पोषण, और जीवों से कर्म — फिर से यज्ञ। यह जीवन का कर्मचक्र है जो ब्रह्मांड की गति को बनाए रखता है।

प्र5: वेदों द्वारा निर्देशित कर्म क्यों आवश्यक हैं?

उत्तर:
वेद भगवान की वाणी हैं और उनमें निर्दिष्ट कर्म मानव जीवन को धर्म, संयम और मोक्ष की ओर ले जाते हैं। वेद आधारित कर्म जीवन को पाप से बचाते हैं और व्यक्ति को ब्रह्मांडीय व्यवस्था के अनुरूप जीने में सहायता करते हैं।

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