श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 6 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 6 in Hindi): श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो मनुष्य को जीवन के सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को न केवल युद्ध के मैदान में बल्कि जीवन के हर पहलू में सही निर्णय लेने का ज्ञान देते हैं। श्लोक 3.6 में श्रीकृष्ण एक महत्वपूर्ण सच्चाई को उजागर करते हैं, जो आज के समय में भी प्रासंगिक है। यह श्लोक उन लोगों के बारे में बताता है जो बाहरी तौर पर धार्मिकता का दिखावा करते हैं, लेकिन अंदर से उनका मन इंद्रियों के विषयों में लिप्त रहता है। ऐसे लोग न केवल स्वयं को धोखा देते हैं बल्कि समाज के लिए भी एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 6 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 6)
श्लोक 3 . 6
Bhagavad Gita Chapter 3 Verse-Shloka 6
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते || ६ ||
गीता अध्याय 3 श्लोक 6 अर्थ सहित (Gita Chapter 3 Verse 6 in Hindi with meaning)

श्लोक 3.6: मूल पाठ और अर्थ
मूल श्लोक:
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥ ६॥
शब्दार्थ:
- कर्मेन्द्रियाणि: पाँचों कर्मेन्द्रियाँ
- संयम्य: वश में करके
- यः: जो
- आस्ते: रहता है
- मनसा: मन से
- स्मरन्: सोचता हुआ
- इन्द्रियार्थान्: इंद्रियों के विषय
- विमूढात्मा: भ्रमित आत्मा
- मिथ्याचारः: पाखंडी
- सः उच्यते: वह कहलाता है
भावार्थ:
जो व्यक्ति अपनी कर्मेन्द्रियों को तो वश में कर लेता है, लेकिन मन से इंद्रियों के विषयों का चिंतन करता रहता है, वह स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी (पाखंडी) कहलाता है।
मिथ्याचारी जीवन की पहचान

बाहरी दिखावा और आंतरिक भ्रम
श्रीकृष्ण इस श्लोक में उन लोगों के बारे में बता रहे हैं जो बाहरी तौर पर धार्मिकता और संयम का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन अंदर से उनका मन इंद्रियों के विषयों में उलझा रहता है। ऐसे लोग न केवल स्वयं को धोखा देते हैं बल्कि दूसरों के लिए भी एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। उदाहरण के तौर पर, कुछ लोग योग और ध्यान का दिखावा करते हैं, लेकिन उनका मन भोग-विलास की इच्छाओं से भरा होता है। वे धार्मिक गुरु बनकर शिष्यों को ज्ञान देते हैं, लेकिन स्वयं इंद्रियों के विषयों में लिप्त रहते हैं।
समाज में पाखंड की स्थिति

आज के समय में यह समस्या और भी गंभीर हो गई है। सोशल मीडिया पर लोग धार्मिकता और आध्यात्मिकता का दिखावा करते हैं, लेकिन उनका वास्तविक जीवन इसके विपरीत होता है। वे बाहरी तौर पर त्याग और संयम का प्रदर्शन करते हैं, लेकिन अंदर से वे भौतिक सुखों और इंद्रियों के विषयों में लिप्त रहते हैं। यह मिथ्याचार न केवल उनके लिए बल्कि समाज के लिए भी हानिकारक है।
तात्पर्य: आंतरिक शुद्धि की आवश्यकता
मन की शुद्धि के बिना त्याग व्यर्थ
श्रीकृष्ण इस श्लोक में स्पष्ट करते हैं कि बाहरी त्याग का कोई मूल्य नहीं है यदि मन अशुद्ध है। ऐसे लोग जो बाहरी तौर पर इंद्रियों को वश में कर लेते हैं, लेकिन मन में इंद्रियों के विषयों का चिंतन करते रहते हैं, वे सबसे बड़े धूर्त हैं। उनका ज्ञान और त्याग व्यर्थ है क्योंकि उनका मन अशुद्ध है।
संत कबीर की सीख
संत कबीरदास जी ने भी इसी सच्चाई को अपने दोहे में व्यक्त किया है:
“मन न रंगाये हो, रंगाये योगी कपारा।”
इसका अर्थ है कि केवल बाहरी वस्त्र और रूप बदलने से कुछ नहीं होता। असली परिवर्तन तब होता है जब मन को शुद्ध किया जाता है। कबीरदास जी कहते हैं कि यदि मन शुद्ध नहीं है, तो बाहरी त्याग और संयम का कोई मूल्य नहीं है।
पुराणों से एक प्रेरक कहानी: राजा भरत और हिरण का मोह
कहानी का परिचय
पुराणों में एक और प्रेरक कहानी है जो श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 3.6 के संदेश को स्पष्ट करती है। यह कहानी राजा भरत की है, जो एक महान राजा और भगवान के प्रति समर्पित भक्त थे। लेकिन उनके जीवन में एक छोटी सी घटना ने उनके मन की दुर्बलता को उजागर कर दिया और उन्हें अपने अगले जन्म में इसका परिणाम भुगतना पड़ा।
राजा भरत का जीवन
राजा भरत एक महान राजा थे जिन्होंने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में संन्यास ले लिया था। वे भगवान की भक्ति में लीन रहते थे और अपने मन को पूरी तरह से भगवान के चरणों में समर्पित कर चुके थे। उनका जीवन त्याग और तपस्या का आदर्श उदाहरण था।
हिरण का मोह
एक दिन, जब राजा भरत एक नदी के किनारे ध्यानमग्न थे, तो उन्होंने देखा कि एक हिरणी नदी पार करने की कोशिश कर रही है। अचानक हिरणी का बच्चा नदी के तेज बहाव में बह गया। राजा भरत ने हिरणी के दुख को देखा और उसके बच्चे को बचाने के लिए नदी में कूद पड़े। उन्होंने हिरण के बच्चे को बचा लिया और उसे हिरणी को सौंप दिया।

इस घटना के बाद, राजा भरत का मन हिरण के बच्चे के प्रति मोह से भर गया। वे उसकी देखभाल करने लगे और धीरे-धीरे उनका मन भगवान की भक्ति से हटकर हिरण के बच्चे में लगने लगा। उनका ध्यान और तपस्या छूट गई, और वे हिरण के बच्चे के प्रति इतने आसक्त हो गए कि उन्होंने अपने अंतिम समय में भी उसी का चिंतन किया।
अगले जन्म में परिणाम
राजा भरत की मृत्यु के समय उनका मन हिरण के बच्चे में लगा हुआ था। इस कारण उन्हें अगले जन्म में एक हिरण के रूप में जन्म लेना पड़ा। हालांकि, पिछले जन्म के संस्कारों के कारण उन्हें अपने पूर्वजन्म की याद थी। उन्होंने इस जन्म में भी भगवान की भक्ति की ओर ध्यान लगाया और अंततः मोक्ष प्राप्त किया।
कहानी से सीख
राजा भरत की यह कहानी हमें यह सीख देती है कि मन की शुद्धि और एकाग्रता बहुत महत्वपूर्ण है। राजा भरत ने बाहरी तौर पर संन्यास और त्याग का जीवन जीया, लेकिन उनका मन एक छोटे से हिरण के बच्चे के प्रति आसक्त हो गया। यह आसक्ति उनके लिए एक बड़ी बाधा बन गई। इस कहानी से हमें यह संदेश मिलता है कि बाहरी त्याग के साथ-साथ मन की शुद्धि और एकाग्रता भी आवश्यक है।
पुराणों में वर्णित कथा: तवृत और सुवृत
इस श्लोक के महत्व को समझाने के लिए पुराणों में तवृत और सुवृत नामक दो भाइयों की कथा प्रसिद्ध है। ये दोनों भाई प्रतिदिन श्रीमद्भागवतम के प्रवचन में जाते थे। एक दिन वे जब मंदिर के लिए निकले, तो अचानक भारी बारिश शुरू हो गई। बारिश से बचने के लिए दोनों एक निकटवर्ती इमारत में चले गए। दुर्भाग्यवश वह इमारत एक वेश्यालय थी।
तवृत वहाँ से तुरंत निकलकर मंदिर पहुँच गया, लेकिन मंदिर में बैठकर उसका मन वेश्यालय में अटका रहा। उसे लगने लगा कि उसके भाई सुवृत वहाँ मौज-मस्ती कर रहे होंगे। दूसरी ओर सुवृत वेश्यालय में बैठा हुआ सोचने लगा कि उसे भी मंदिर जाकर भागवत का श्रवण करना चाहिए था। वह अपने मन में पश्चाताप करता रहा।

बारिश रुकने के बाद जब दोनों भाई एक-दूसरे से मिले, तभी उन पर बिजली गिरी और वे दोनों मृत्यु को प्राप्त हुए। यमदूत जब तवृत को नरक ले जाने लगे, तो उसने विरोध किया, “मैं तो मंदिर में प्रवचन सुन रहा था, फिर मुझे नरक क्यों ले जा रहे हो? मेरा भाई तो वेश्यालय में बैठा था, उसे नरक भेजना चाहिए।”
यमदूतों ने उत्तर दिया, “तुम्हारा शरीर तो मंदिर में था, लेकिन तुम्हारा मन वेश्यालय में था। तुम्हारा भाई वेश्यालय में बैठा था, लेकिन उसका मन भागवत प्रवचन में था। यही कारण है कि तुम्हें नरक और तुम्हारे भाई को स्वर्ग में स्थान मिला।”
यह कथा इस श्लोक के वास्तविक अर्थ को उजागर करती है कि केवल बाहरी संयम का कोई महत्व नहीं है; व्यक्ति का मन भी पवित्र होना चाहिए।
कर्मयोग का महत्व

श्रीकृष्ण इस श्लोक के माध्यम से हमें कर्मयोग का महत्व समझाते हैं। केवल तपस्या या ध्यान करने से जीवन सफल नहीं होता; कर्मयोग के माध्यम से जीवन का सही मार्ग प्रशस्त होता है।
कर्मयोग का अर्थ है — जीवन के संघर्षों का सामना करते हुए, अपने कर्तव्यों को ईमानदारी से निभाते हुए मन को नियंत्रित करना।
सही मार्ग पर चलने के लिए हमें जीवन में संयम के साथ-साथ अपने विचारों को भी पवित्र बनाना चाहिए। बाहरी रूप से धर्म का आडंबर करने के बजाय, मन की एकाग्रता और कर्म में निष्ठा होना आवश्यक है।
निष्कर्ष: सच्चे त्याग का मार्ग
श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक 3.6 हमें यह सीख देता है कि केवल बाहरी त्याग और धार्मिकता का दिखावा करने से कुछ हासिल नहीं होता। असली सफलता तब मिलती है जब हम अपने मन को इंद्रियों के विषयों से दूर करके आत्मशुद्धि की ओर अग्रसर होते हैं। यही सच्चा त्याग और योग है। इस श्लोक का संदेश हमें यह याद दिलाता है कि जीवन में सच्चाई और आंतरिक शुद्धि ही सफलता की कुंजी है।
Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस