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Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 13 Shloka 13 | गीता अध्याय 3 श्लोक 13 अर्थ सहित | यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः…..

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 13 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 13 in Hindi): भगवद्गीता न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि जीवन जीने की कला सिखाने वाला एक दिव्य ग्रंथ है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग के माध्यम से मनुष्य को जीवन का सही मार्ग दिखाया है। गीता के तीसरे अध्याय के श्लोक 3.13 में भोजन की शुद्धता और उसके आध्यात्मिक प्रभाव के बारे में गहन ज्ञान दिया गया है।

इस श्लोक में कहा गया है कि जो लोग यज्ञ में अर्पित किए गए भोजन (प्रसाद) को ग्रहण करते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं, जबकि जो लोग केवल अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए भोजन करते हैं, वे पाप के भागी बनते हैं। यह लेख इसी श्लोक की गहराई को समझाते हुए बताएगा कि कैसे हमारा भोजन हमारे जीवन को प्रभावित करता है और क्यों यज्ञ-शिष्ट भोजन हमें पापों से मुक्त कर सकता है।

Table of Contents

श्रीमद् भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 13 (Bhagavad Gita Chapter 3 Verse 13)

गीता अध्याय 3 श्लोक 13 अर्थ सहित (Gita Chapter 3 Verse 13 in Hindi with meaning)

गीता अध्याय 3 श्लोक 13 अर्थ सहित (Gita Chapter 3 Verse 13 in Hindi with meaning)
Gita Chapter 3 Verse 13

गीता अध्याय 3 श्लोक 3.13: मूल पाठ, अर्थ और व्याख्या

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥ १३ ॥

शब्दार्थ एवं भावार्थ

  • यज्ञ-शिष्ट – यज्ञ में अर्पित किया गया भोजन (प्रसाद)
  • अशिनः – खाने वाले
  • सन्तः – साधु या भक्त
  • मुच्यन्ते – मुक्त हो जाते हैं
  • सर्वकिल्बिषैः – सभी पापों से
  • भुञ्जते – भोगते हैं
  • अघम् – पाप
  • पापाः – पापी लोग
  • ये पचन्ति – जो पकाते हैं
  • आत्म-कारणात् – स्वार्थ के लिए

सरल भावार्थ

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त यज्ञ में अर्पित किए गए भोजन को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं। लेकिन जो लोग केवल अपनी इंद्रियों की तृप्ति के लिए भोजन बनाते और खाते हैं, वे पाप के भागी बनते हैं।

विस्तृत व्याख्या

  1. यज्ञ-शिष्ट भोजन का महत्व
    • यज्ञ (पवित्र अनुष्ठान) में अर्पित किया गया भोजन दिव्य ऊर्जा से युक्त होता है।
    • इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करने से मनुष्य का मन और शरीर शुद्ध होता है।
  2. स्वार्थपूर्ण भोजन के दुष्परिणाम
    • जो लोग भोजन को केवल स्वाद और पेट भरने के लिए उपयोग करते हैं, वे पाप के भागी बनते हैं।
    • ऐसा भोजन तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ाता है, जिससे मन अशांत होता है।

यज्ञ-शिष्ट भोजन क्या है और इसे कैसे तैयार करें?

यज्ञ-शिष्ट भोजन की परिभाषा

यज्ञ-शिष्ट भोजन वह है जो पहले भगवान को अर्पित किया जाता है और फिर प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। यह न केवल शारीरिक पोषण प्रदान करता है, बल्कि आत्मिक शुद्धि भी लाता है।

यज्ञ-शिष्ट भोजन तैयार करने की विधि

  1. भोजन बनाने से पहले
    • सात्विक सामग्री (शुद्ध घी, ताज़ी सब्जियाँ, दाल, चावल आदि) का उपयोग करें।
    • भोजन बनाते समय मन में भगवान का स्मरण करें।
  2. भगवान को अर्पित करना
    • भोजन तैयार होने के बाद उसे भगवान के समक्ष रखें।
    • मंत्रों द्वारा भोग लगाएँ, जैसे:“नमो भगवते वासुदेवाय”
      “कृष्णार्पणमस्तु”
  3. प्रसाद के रूप में ग्रहण करना
    • भोग लगाने के बाद भोजन को प्रसाद समझकर ग्रहण करें।
    • भोजन करने से पहले कृतज्ञता व्यक्त करें।

यज्ञ-शिष्ट भोजन के लाभ

1. पापों से मुक्ति

  • भगवान को अर्पित करने से भोजन पवित्र हो जाता है, जो पापों के प्रभाव को कम करता है।

2. मन की शुद्धि

  • प्रसाद ग्रहण करने से मन में सात्विक भावना आती है और नकारात्मक विचार दूर होते हैं।

3. शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार

  • सात्विक भोजन पाचन तंत्र को मजबूत करता है और रोगों से बचाता है।

4. कर्मफल से मुक्ति

  • भोजन को यज्ञ का अंग मानकर खाने से कर्मबंधन नहीं होता।

स्वार्थपूर्ण भोजन के दुष्परिणाम

1. पाप का भागीदार बनना

  • बिना भगवान को अर्पित किए भोजन करना चोरी के समान है।

2. मानसिक अशांति

  • तामसिक भोजन (मांस, मदिरा, अधिक मसालेदार भोजन) मन को अशुद्ध करता है।

3. रोगों का कारण

  • असंयमित और अशुद्ध भोजन मोटापा, मधुमेह और हृदय रोग जैसी बीमारियों को जन्म देता है।

4. कर्मबंधन में फँसना

  • ऐसा भोजन करने वाला जीवन-मरण के चक्र में फँसा रहता है।

विश्व के महान विचारक और गीता अध्याय 3 श्लोक 3.13 का सन्देश

विश्व के महान विचारक और गीता अध्याय 3 श्लोक 3.13 का सन्देश
महात्मा गांधी, बुद्ध, आइंस्टीन, टॉलस्टॉय और स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों का शांत, ध्यानमग्न अवस्था में एक कोलाज, प्राकृतिक पृष्ठभूमि और करुणा को दर्शाते हुए।

महापुरुषों के विचार

1. महात्मा गांधी“शाकाहार आत्मा की शुद्धि का माध्यम है।”

🔹 विचार: गांधीजी मानते थे कि शाकाहार आत्म-नियंत्रण और अहिंसा की पहली सीढ़ी है।
🔹 उदाहरण:
उनकी आत्मकथा “सत्य के प्रयोग” में उन्होंने स्वीकार किया कि जब उन्होंने मांस खाना शुरू किया, तो उन्हें आत्मग्लानि हुई। उन्होंने कहा,

“मुझे लगा जैसे मैं किसी निर्दोष प्राणी के शरीर का हिस्सा खा रहा हूँ।”

बाद में, वे व्रत, संयम और शुद्ध शाकाहार के माध्यम से जीवन भर ब्रह्मचर्य और अहिंसा का पालन करते रहे।

2. अल्बर्ट आइंस्टीन“मानवता का सबसे बड़ा कल्याण तब होगा जब हम शाकाहारी बनेंगे।”

🔹 विचार: आइंस्टीन मानते थे कि पशु हत्या न केवल क्रूरता है, बल्कि उससे मनुष्य की चेतना भी कुंठित होती है।
🔹 उदाहरण:
अपने एक पत्र में उन्होंने लिखा,

“शाकाहारी आहार मनुष्य के स्वभाव को शांत और दयालु बनाता है।”

आइंस्टीन ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में पूर्ण शाकाहार अपनाया और इसे अपनी आध्यात्मिक प्रगति का हिस्सा माना।

3. लियो टॉलस्टॉय (रूसी लेखक)“जब तक वधशालाएँ हैं, युद्ध भी होंगे।”

🔹 विचार: टॉलस्टॉय का मानना था कि शाकाहार केवल स्वास्थ्य नहीं, बल्कि नैतिकता और करुणा की अभिव्यक्ति है।
🔹 उदाहरण:
वे अक्सर स्वयं वधशालाओं में जाकर वहाँ की पीड़ा को महसूस करते थे और लोगों को पशु-हत्या से रोकते थे।
उनका प्रसिद्ध कथन है:

“यदि मनुष्य सच्चा नैतिक बनना चाहता है, तो उसे सबसे पहले मांसाहार छोड़ना होगा।”

4. आचार्य विनोबा भावे“पशु में भी परमात्मा है, फिर क्यों उसे मारें?”

🔹 विचार: आचार्य विनोबा भावे ने शाकाहार को ‘भोजन का यज्ञ’ कहा, जिसमें हिंसा नहीं होनी चाहिए।
🔹 उदाहरण:
उन्होंने भूदान आंदोलन के दौरान गाँव-गाँव जाकर लोगों को अहिंसा और शाकाहार के लिए प्रेरित किया। वे मानते थे कि

“जिसका मन शांत है, वह मांस नहीं खा सकता।”

5. थॉमस एडिसन (विज्ञानी)“मुझे जानवरों से उतना ही प्रेम है जितना इंसानों से।”

🔹 विचार: एडिसन मानते थे कि यदि मनुष्य पशुओं के प्रति करुणाशील नहीं है, तो वह सभ्य नहीं कहला सकता।
🔹 उदाहरण:
उन्होंने जानवरों पर प्रयोग करने से हमेशा इनकार किया और शाकाहार को वैज्ञानिक उन्नति से जोड़कर देखा।
उन्होंने कहा:

“मैं शाकाहारी हूँ, क्योंकि मुझे जानवरों की पीड़ा भी अपनी जैसी लगती है।”

6. सत्य साईं बाबा“शुद्ध शाकाहार आध्यात्मिक प्रगति का आधार है।”

🔹 विचार: सत्य साईं बाबा ने जीवन भर शाकाहार को बढ़ावा दिया और अपने आश्रम में केवल सात्विक भोजन की अनुमति दी।
🔹 उदाहरण:
उन्होंने कहा था,

“यदि तुम्हारा भोजन तुम्हारे विचारों को दूषित कर रहा है, तो वह भोजन नहीं, ज़हर है।”

साईं बाबा ने भोजन को ‘प्रसाद’ कहा और उसे भगवान की कृपा का माध्यम बताया।

7. स्वामी विवेकानंद“पशु बलि से धर्म नहीं होता, धर्म करुणा से होता है।”

🔹 विचार: प्रारंभ में स्वामी विवेकानंद कभी-कभी मांसाहारी रहे, लेकिन जैसे-जैसे उनका आध्यात्मिक विकास हुआ, उन्होंने पूरी तरह शाकाहार अपना लिया।
🔹 उदाहरण:
उन्होंने एक सभा में कहा था,

“यदि तुम अपने जीवन में करुणा लाना चाहते हो, तो पहले अपने थाली से हिंसा हटाओ।”

8. पाइथागोरस (प्राचीन यूनानी दार्शनिक)“जैसे तुम जीवन चाहते हो, वैसे ही अन्य जीव भी।”

🔹 विचार: वे मानते थे कि आत्मा अमर है और वह सभी प्राणियों में समान रूप से रहती है।
🔹 उदाहरण:
पाइथागोरस ने अपनी गणित और दर्शनशास्त्र की कक्षाओं में शाकाहार को अनिवार्य बना दिया था।
उन्होंने कहा:

“यदि तुम किसी जीव की हत्या कर सकते हो, तो इंसान की भी कर सकते हो।”

9. लियोनार्डो दा विंची“एक दिन लोग जानवरों को मारना वैसा ही समझेंगे जैसा आज इंसानों की हत्या।”

🔹 विचार: विंची महान चित्रकार होने के साथ-साथ प्रकृति प्रेमी और शुद्ध शाकाहारी भी थे।
🔹 उदाहरण:
वह बाजार से पिंजरे में बंद पक्षियों को खरीदते और उन्हें आज़ाद कर देते थे।
उनका दृढ़ मत था:

“मांस का स्वाद मेरे लिए पीड़ा और मृत्यु का स्वाद है।”

10. बुद्ध भगवान“अहिंसा ही धर्म है।”

🔹 विचार: भगवान बुद्ध ने पूरी दुनिया को करुणा और शांति का मार्ग दिखाया। उन्होंने कहा,

“जो दूसरे प्राणियों की पीड़ा को महसूस कर सकता है, वही सच्चा साधक है।”

🔹 उदाहरण:
बौद्ध भिक्षु केवल शाकाहार ग्रहण करते हैं और भोजन से पहले ‘भिक्षा पाठ’ करते हैं, ताकि भोजन को आत्म-शुद्धि का साधन बनाया जा सके।

निष्कर्ष: भोजन की पवित्रता ही मुक्ति का मार्ग

भगवद्गीता का यह श्लोक हमें सिखाता है कि भोजन केवल पेट भरने का साधन नहीं, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति का माध्यम भी है। यज्ञ-शिष्ट भोजन न केवल पापों से मुक्त करता है, बल्कि जीवन को शांतिमय और आनंदमय भी बनाता है।

क्या करें?

  • भोजन बनाने से पहले भगवान को स्मरण करें।
  • भोजन को प्रसाद के रूप में ग्रहण करें।
  • सात्विक और शाकाहारी भोजन को प्राथमिकता दें।
  • भोजन करते समय कृतज्ञता का भाव रखें।

इस प्रकार, यज्ञ-शिष्ट भोजन न केवल हमें पापों से मुक्त करता है, बल्कि हमारे जीवन को दिव्य बनाने का मार्ग भी प्रशस्त करता है।

Resources : श्रीमद्भागवत गीता यथारूप – बक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद, गीता प्रेस

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