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Shri Brihaspati Bhagwan Ki Vrat Katha: श्री बृहस्पति भगवान की व्रत कथा

बृहस्पति भगवान

श्री बृहस्पति भगवान की व्रत कथा:भारतवर्ष में एक प्रतापी और दानी राजा राज्य करता था, जो नित्य गरीबों और ब्राह्मणों की सहायता करता था। हालांकि, उसकी रानी को यह बात पसंद नहीं थी। वह स्वयं न तो गरीबों को दान देती थी, न ही भगवान का पूजन करती थी, और राजा को भी दान देने से मना करती थी।

एक दिन जब राजा शिकार खेलने वन को गए थे, रानी महल में अकेली थीं। उसी समय बृहस्पतिदेव साधु वेष में राजा के महल में भिक्षा माँगने आए। रानी ने उन्हें भिक्षा देने से इनकार कर दिया और कहा, “हे साधु महाराज, मैं तो दान-पुण्य से तंग आ गई हूँ।” मेरा पति सारा धन लुटाते रहते हैं। मेरी इच्छा है कि हमारा धन नष्ट हो जाए, ताकि इस समस्या का अंत हो सके। साधु ने कहा, “देवी, तुम बहुत विचित्र हो। धन और संतान तो सभी चाहते हैं। यहां तक कि पापी के घर में भी पुत्र और लक्ष्मी होने चाहिए।” यदि तुम्हारे पास अधिक धन है, तो भूखों को भोजन दो, प्यासों के लिए प्याऊ बनवाओ और मुसाफिरों के लिए धर्मशालाएं खुलवाओ। जो निर्धन अपनी कुंवारी कन्याओं का विवाह नहीं कर सकते, उनका विवाह करवा सकते हो। इस प्रकार के और भी कई कार्य हैं, जिनसे तुम्हारा यश लोक और परलोक दोनों में फैलेगा।

परन्तु रानी पर उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह बोली, “महाराज, आप मुझे कुछ न समझाएं। मैं ऐसा धन नहीं चाहती जिसे हर जगह बाँटती फिरूं।”

साधु ने उत्तर दिया, “यदि तुम्हारी ऐसी इच्छा है, तो तथास्तु! तुम ऐसा करना कि बृहस्पतिवार को घर लीपकर पीली मिट्टी से सिर धोकर स्नान करना, कपड़े धोना, ऐसा करने से तुम्हारा सारा धन नष्ट हो जाएगा।” इतना कहकर, वह साधु महाराज वहाँ से गायब हो गए।

साधु की बताई बातों को मानते हुए, रानी ने केवल तीन बृहस्पतिवार पूरे किए थे, कि उनकी समस्त धन-संपत्ति नष्ट हो गई। राजा का परिवार भोजन के लिए तरसने लगा। तब एक दिन राजा ने रानी से कहा, “हे रानी, तुम यहीं रहो। मैं दूसरे देश को जाता हूँ, क्योंकि यहाँ पर सभी लोग मुझे जानते हैं और मैं कोई छोटा कार्य नहीं कर सकता।” राजा ने ऐसा कहकर परदेश का रुख किया। वहाँ, वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और शहर में बेचता, जिससे उसका जीवन व्यतीत होता। राजा के परदेश जाते ही, रानी और दासी दोनों दुःखी रहने लगीं।

एक बार, जब रानी और दासी को सात दिन तक बिना भोजन के रहना पड़ा, तो रानी ने अपनी दासी से कहा, “हे दासी, पास के नगर में मेरी बहन रहती है।” वह बहुत धनवान है। तुम उसके पास जाओ और कुछ मदद लेकर आओ, ताकि हमारी गुजर-बसर हो सके। दासी रानी की बहन के पास गई। उस दिन गुरुवार था और रानी की बहन उस समय बृहस्पतिवार व्रत की कथा सुन रही थी। दासी ने रानी की बहन को अपनी रानी का संदेश दिया, लेकिन रानी की बड़ी बहन ने कोई उत्तर नहीं दिया। जब दासी को रानी की बहन से कोई उत्तर नहीं मिला, तो वह बहुत दुःखी हुई और उसे क्रोध भी आया। दासी ने वापस आकर रानी को पूरी बात बताई। यह सुनकर रानी ने अपने भाग्य को कोसा।

उधर, रानी की बहन ने सोचा कि मेरी बहन की दासी आई थी और मैं उससे नहीं बोली, जिससे वह बहुत दुःखी हुई होगी।

कथा सुनने और पूजन समाप्त करने के बाद, वह अपनी बहन के घर आई और कहने लगी, “हे बहन, मैं बृहस्पतिवार का व्रत कर रही थी।” तुम्हारी दासी मेरे घर आई थी, लेकिन कथा के दौरान उठना या बोलना वर्जित होता है, इसलिए मैं नहीं बोल पाई। बताओ, दासी क्यों आई थी? रानी ने कहा, “बहन, तुमसे क्या छिपाऊं, हमारे घर में खाने के लिए अनाज तक नहीं था।” यह कहते हुए रानी की आंखें भर आईं। उसने अपनी बहन को दासी समेत पिछले सात दिनों से भूखे रहने की पूरी कहानी विस्तार से बता दी।

रानी की बहन बोली, “देखो बहन, भगवान बृहस्पतिदेव सबकी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। हो सकता है तुम्हारे घर में ही कहीं अनाज रखा हो।” पहले तो रानी को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन बहन के आग्रह पर उसने अपनी दासी को अंदर भेजा। दासी को वास्तव में अनाज से भरा एक घड़ा मिल गया, जिसे देखकर वह बहुत हैरान हो गई।

दासी ने रानी से कहा, “हे रानी, जब हमें भोजन नहीं मिलता, तो हम व्रत ही रखते हैं। क्यों न इनसे व्रत और कथा की विधि पूछ लें, ताकि हम भी व्रत कर सकें।” तब रानी ने अपनी बहन से बृहस्पतिवार व्रत के बारे में पूछा। उसकी बहन ने बताया, “बृहस्पतिवार के व्रत में चने की दाल और मुनक्का का उपयोग करके केले की जड़ में विष्णु भगवान की पूजा करें। दीपक जलाकर व्रत कथा सुनें और पीले भोजन का ही सेवन करें।” इससे बृहस्पतिदेव प्रसन्न होते हैं। व्रत और पूजन की विधि बताने के बाद, रानी की बहन अपने घर लौट गई।

सात दिनों के बाद, जब गुरुवार आया, तो रानी और दासी ने व्रत रखा। वे घुड़साल में जाकर चना और गुड़ लेकर आईं और फिर उनसे केले की जड़ तथा विष्णु भगवान की पूजा की। पीला भोजन कहाँ से आएगा, इस चिंता में दोनों बहुत दुःखी थे। लेकिन चूंकि उन्होंने व्रत रखा था, इसलिए बृहस्पतिदेव उनसे प्रसन्न थे। इसलिए, उन्होंने साधारण व्यक्ति का रूप धारण कर दासी को दो थालों में सुन्दर पीला भोजन दिया। दासी भोजन पाकर प्रसन्न हुई और रानी के साथ मिलकर भोजन ग्रहण किया।

उसके बाद, वे सभी प्रत्येक गुरुवार को व्रत और पूजन करने लगीं। बृहस्पति भगवान की कृपा से उनके पास फिर से धन-संपत्ति आ गई। परंतु, रानी फिर से पहले की तरह आलसी हो गई। तब दासी ने कहा, “देखो रानी! पहले भी तुम्हारे आलस्य के कारण तुम्हें धन रखने में परेशानी होती थी, और इसीलिए सारा धन नष्ट हो गया। अब जब भगवान बृहस्पति की कृपा से तुम्हें पुनः धन मिला है, तो तुम्हें फिर से आलस्य हो रहा है।”

दासी रानी को समझाते हुए कहती है, “हमने यह धन कई कठिनाइयों के बाद पाया है। इसलिए हमें इसे दान-पुण्य में लगाना चाहिए, भूखे लोगों को भोजन कराना चाहिए, और इसे शुभ कार्यों में खर्च करना चाहिए। इससे तुम्हारे कुल का यश बढ़ेगा, स्वर्ग की प्राप्ति होगी और पित्र प्रसन्न होंगे।” दासी की बात मानकर, रानी ने अपना धन शुभ कार्यों में खर्च करना शुरू कर दिया, जिससे पूरे नगर में उसका यश फैल गया।

एक दिन, दुःखी होकर राजा जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठ गया। अपनी दशा को याद करते हुए, वह व्याकुल हो गया। बृहस्पतिवार का दिन था, और अचानक उसने देखा कि निर्जन वन में एक साधु प्रकट हुए। वे साधु वेश में स्वयं बृहस्पति देवता थे। लकड़हारे के सामने आकर साधु बोले, “हे लकड़हारे, इस सुनसान जंगल में तुम चिंता मग्न क्यों बैठे हो?” लकड़हारे ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और कहा, “महात्मा जी, आप सब कुछ जानते हैं, मैं क्या कहूँ।” यह कहकर वह रोने लगा और साधु को अपनी पूरी आत्मकथा सुनाई।

महात्मा जी ने कहा, “तुम्हारी स्त्री ने बृहस्पति के दिन बृहस्पति भगवान का निरादर किया है, जिसके कारण वे रुष्ट हो गए और तुम्हारी यह दशा हो गई।” अब तुम चिंता छोड़कर मेरे कहे अनुसार चलो, तो तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे और भगवान तुम्हें पहले से भी अधिक संपत्ति देंगे। तुम बृहस्पति के दिन कथा किया करो। दो पैसे के चने और मुनक्का लाकर उसका प्रसाद बनाएं और शुद्ध जल में शक्कर मिलाकर अमृत तैयार करें। कथा के पश्चात, अपने परिवार और सुनने वालों के बीच अमृत और प्रसाद बांटें, और स्वयं भी ग्रहण करें। ऐसा करने से भगवान आपकी सभी मनोकामनाएँ पूरी करेंगे।

साधु के वचन सुनकर लकड़हारा बोला, “हे प्रभु, लकड़ी बेचकर मुझे इतना पैसा नहीं मिलता कि भोजन के बाद कुछ बचा सकूं। मैंने रात को अपनी स्त्री को व्याकुल देखा है। मेरे पास कुछ भी नहीं है जिससे मैं उसकी खबर मंगा सकूं।” साधु ने कहा, “हे लकड़हारे, किसी बात की चिंता मत करो। बृहस्पति के दिन रोजाना की तरह लकड़ियाँ लेकर शहर जाओ। तुम्हें रोज से दुगुना धन प्राप्त होगा, जिससे तुम भली-भांति भोजन कर सकोगे और बृहस्पतिदेव की पूजा का सामान भी जुटा पाओगे।”

इतना कहकर साधु अन्तर्ध्यान हो गए। समय बीतने पर एक बार फिर बृहस्पतिवार का दिन आया। लकड़हारा जंगल से लकड़ी काटकर शहर में बेचने गया, और उसे उस दिन अन्य दिनों की तुलना में अधिक धन मिला। राजा ने चना और गुड़ लेकर गुरुवार का व्रत किया, जिससे उसके सभी क्लेश दूर हो गए। परन्तु, जब अगला गुरुवार आया, वह बृहस्पतिवार का व्रत करना भूल गया, जिसके कारण बृहस्पति भगवान नाराज हो गए।

उस दिन नगर के राजा ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया और पूरे शहर में यह घोषणा करवाई कि कोई भी व्यक्ति अपने घर में भोजन न पकाए और न आग जलाए। समस्त जनता को राजा के यहाँ भोजन करने का आमंत्रण दिया गया। जो कोई इस आज्ञा का उल्लंघन करेगा, उसे फाँसी की सजा दी जाएगी। इस प्रकार की घोषणा पूरे नगर में करवाई गई।

राजा की आज्ञा के अनुसार, शहर के सभी लोग भोजन करने पहुंचे। लेकिन लकड़हारा थोड़ी देर से आया, इसलिए राजा उसे अपने साथ घर ले गए और भोजन कराने लगे। उसी समय, रानी की दृष्टि उस खूंटी पर पड़ी, जहाँ उसका हार लटका हुआ था। वहाँ हार दिखाई नहीं दिया। रानी ने सोच लिया कि इस व्यक्ति ने ही उसका हार चुरा लिया है। तुरंत सिपाहियों को बुलाकर उसे कारागार में डलवा दिया।

जब लकड़हारा कारागार में बंद हुआ, तो वह बहुत दुःखी होकर सोचने लगा कि कौन से पिछले जन्म के कर्मों के कारण उसे यह दुख झेलना पड़ रहा है। उसे जंगल में मिले उस साधु की याद आने लगी। उसी समय बृहस्पतिदेव साधु के रूप में प्रकट हुए और उसकी दशा देखकर बोले, “अरे मूर्ख, तूने बृहस्पतिदेव की कथा नहीं की, इसलिए तुझे यह दुख मिला है।” अब चिंता मत कर। बृहस्पतिवार के दिन, तुम्हें कारागार के दरवाजे पर चार पैसे मिलेंगे। उनसे तुम बृहस्पतिदेव की पूजा करना, इससे तुम्हारे सभी कष्ट दूर हो जाएंगे।

बृहस्पति के दिन, लकड़हारे को चार पैसे मिले। उसने बृहस्पतिदेव की कथा कही। उसी रात, बृहस्पतिदेव ने नगर के राजा को स्वप्न में प्रकट होकर कहा, “हे राजा!” तुमने जिस आदमी को कारागार में बंद कर रखा है, वह निर्दोष है। वह राजा है, उसे रिहा कर दो। रानी का हार उसी खूंटी पर लटका हुआ है। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे, तो मैं तुम्हारे राज्य को नष्ट कर दूंगा।

स्वप्न से प्रभावित होकर, राजा सुबह उठा और खूंटी पर हार पाया। उसने लकड़हारे को बुलाकर क्षमा मांगी, और उसे उपयुक्त सुंदर वस्त्र और आभूषण देकर विदा किया। बृहस्पतिदेव की आज्ञा का पालन करते हुए, लकड़हारा अपने नगर लौट गया। जब राजा अपने नगर के पास पहुँचा, तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ। नगर में पहले से अधिक बाग, तालाब, कुएं और कई धर्मशालाएँ और मंदिर बन चुके थे। राजा ने पूछा, “यह बाग और धर्मशालाएँ किसकी हैं?” नगर के सभी लोग बोले, “यह सब रानी और बांदी के हैं।” यह सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ और गुस्सा भी आया।

जब रानी को खबर मिली कि राजा आ रहे हैं, तो उन्होंने बांदी से कहा, “हे दासी, देखो राजा हमें कितनी बुरी हालत में छोड़ गए थे। हमारी इस हालत को देखकर वह कहीं लौट न जाएं, इसलिए तुम दरवाजे पर खड़ी हो जाओ।” दासी ने आदेशानुसार दरवाजे पर खड़ी हो गई। जब राजा आए, तो वह उन्हें अंदर ले गई। राजा ने क्रोध में आकर अपनी रानी से पूछा, “यह धन तुम्हें कैसे प्राप्त हुआ?” रानी ने उत्तर दिया, “यह सब धन हमें बृहस्पतिदेव के इस व्रत के प्रभाव से प्राप्त हुआ है।”

राजा ने फैसला किया कि जहाँ सभी लोग हर सात दिन बाद बृहस्पतिदेव की पूजा करते हैं, वहीं मैं प्रतिदिन तीन बार कहानी सुनाऊंगा और रोज व्रत करूंगा। अब राजा के दुपट्टे में हमेशा चने की दाल बंधी रहती और वह दिन में तीन बार कहानी सुनाता। एक दिन राजा ने सोचा कि अपनी बहन के यहाँ जाया जाए। यह तय करके वह घोड़े पर सवार होकर अपनी बहन के घर की ओर चल पड़ा। रास्ते में उसने देखा कि कुछ लोग एक मृतक को ले जा रहे हैं। उन्हें रोककर राजा बोला, “अरे भाइयों, मेरी बृहस्पतिदेव की कथा सुन लो।”

वे बोले, “लो! हमारा तो आदमी मर गया है, इसे अपनी कथा की पड़ी है।” परन्तु कुछ अन्य लोगों ने कहा, “ठीक है, हम तुम्हारी कथा भी सुनेंगे।” राजा ने दाल निकाली और जैसे ही कथा आधी हुई, मुर्दा हिलने लगा। कथा समाप्त होते ही वह व्यक्ति “राम-राम” कहकर उठकर खड़ा हो गया।

आगे मार्ग में राजा को एक किसान मिला जो खेत में हल चला रहा था। राजा ने उसे देखकर कहा, “अरे भाई, मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन लो।” किसान ने कहा, “जब तक मैं तुम्हारी कथा सुनूंगा, तब तक चार हरैया जोत लूंगा। तुम अपनी कथा किसी और को सुनाओ।” इस तरह राजा आगे बढ़ता गया। राजा के जाने के तुरंत बाद, बैल गिर पड़े और किसान के पेट में तीव्र दर्द होने लगा।

उस समय उसकी माँ रोटी लेकर आई। उसने देखा तो अपने पुत्र से पूरी स्थिति पूछी। बेटे ने सब कुछ बता दिया, तो बुढ़िया तेजी से उस घुड़सवार के पास गई और बोली, “मैं आपकी कथा सुनूंगी। आप कृपया मेरे खेत पर चलकर ही कथा सुनाएँ।” राजा ने बुढ़िया के खेत पर जाकर कथा सुनाई, जिसे सुनते ही बैल उठ खड़े हुए और किसान का पेट दर्द भी बंद हो गया।

राजा अपनी बहन के घर पहुँचा और उसने उसका अच्छे से स्वागत किया। अगले दिन सुबह राजा ने देखा कि सभी लोग भोजन कर रहे हैं। राजा ने अपनी बहन से कहा, “यदि यहाँ कोई ऐसा व्यक्ति है जिसने भोजन नहीं किया हो, तो वह मेरी बृहस्पतिवार की कथा सुन ले।” बहन ने कहा, “हे भैया, इस देश की रीति यही है कि लोग पहले भोजन करते हैं और फिर अन्य काम करते हैं। अगर कोई पड़ोस में भूखा हो तो मैं जाकर देखती हूँ।”

वह ऐसा कहकर देखने चली गई, लेकिन उसे ऐसा कोई व्यक्ति नहीं मिला जिसने भोजन न किया हो। तब वह एक कुम्हार के घर गई, जहाँ उसका बीमार बेटा था। उसे पता चला कि उनके यहाँ तीन दिनों से किसी ने भोजन नहीं किया है। रानी ने अपने भाई की कथा सुनने के लिए कुम्हार से अनुरोध किया, और वह मान गया। राजा ने जाकर बृहस्पतिवार की कथा सुनाई। कथा सुनते ही कुम्हार का बेटा स्वस्थ हो गया। अब, राजा की खूब प्रशंसा होने लगी।

एक दिन राजा ने अपनी बहन से कहा, “हे बहन, हम अपने घर लौटेंगे। तुम भी तैयार हो जाओ।” राजा की बहन ने अपनी सास से बात की। सास ने उत्तर दिया, “हाँ, चली जा, परन्तु अपने बच्चों को मत ले जाना क्योंकि तेरे भाई की कोई संतान नहीं है।” यह सुन कर बेहद दुःखी मन से राजा अपने नगर में वापस लौट आया, उसने अपनी रानी से कहा, “हमारी कोई संतान नहीं है। ऐसे में हमारा मुंह देखना ठीक नहीं है।” रानी ने कहा, “हे प्रभु, बृहस्पतिदेव ने हमें सब कुछ दिया है। वे हमें संतान भी अवश्य देंगे।”

उसी रात बृहस्पतिदेव ने राजा को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, “हे राजा, उठो। सभी चिंताओं को त्याग दो। तुम्हारी रानी गर्भवती है।” यह सुनकर राजा को बहुत खुशी हुई। नवें महीने में, रानी ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया।

॥ बोलो बृहस्पतिदेव की जय। भगवान विष्णु की जय ॥

॥ बृहस्पतिदेव की कथा॥

प्राचीन काल में एक ब्राह्मण रहते थे जो बहुत निर्धन थे। उनके कोई संतान नहीं थी। उनकी पत्नी बहुत मलीनता के साथ रहती थी। वह स्नान नहीं करती थी और किसी देवता का पूजन भी नहीं करती थी। इस कारण ब्राह्मण देवता बहुत दुःखी थे। उन्होंने बहुत कुछ समझाने की कोशिश की, लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं निकला। भगवान की कृपा से ब्राह्मण के घर एक सुंदर कन्या का जन्म हुआ। कन्या के बड़ी होने पर, वह प्रातः स्नान करके विष्णु भगवान का जाप और बृहस्पतिवार का व्रत करने लगी। पूजन-पाठ समाप्त करने के बाद, वह विद्यालय जाती और अपनी मुट्ठी में जौ भरकर मार्ग में बिखेरती। जब ये जौ स्वर्ण में परिवर्तित हो जाते, तब वह लौटते समय उन्हें बीनकर घर ले आती।

एक दिन, वह बालिका सूप में सोने के जौ को फटककर साफ कर रही थी, तभी उसकी माँ ने देख लिया और कहा, “बेटी, सोने के जौ के लिए सोने का सूप होना चाहिए।” अगले दिन बृहस्पतिवार था, और उस कन्या ने व्रत रखा और बृहस्पतिदेव से प्रार्थना करते हुए कहा, “अगर मैंने आपकी पूजा सच्चे मन से की हो, तो कृपया मेरे लिए सोने का सूप प्रदान करें।” बृहस्पतिदेव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। रोजाना की तरह, वह कन्या जौ फैलाती हुई जाने लगी। जब वह लौटकर जौ बीन रही थी, तो बृहस्पतिदेव की कृपा से उसे सोने का सूप मिला। वह उसे घर ले आई और उसमें जौ साफ करने लगी। पर उसकी माँ का वही व्यवहार रहा। एक दिन, जब वह कन्या सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी, उस समय उस शहर का राजकुमार वहां से गुजर रहा था।

राजकुमार उस कन्या के रूप और कार्य से इतना प्रभावित हुआ कि वह अपने घर लौटकर उदास हो गया और भोजन तथा पानी त्याग दिया। जब राजा को इसकी जानकारी मिली, तो वह अपने प्रधानमंत्री के साथ राजकुमार के पास गए और बोले, “हे बेटा, तुम्हें किस बात का कष्ट है? क्या किसी ने तुम्हारा अपमान किया है, या कोई अन्य कारण है? जो भी हो, मैं वही करूंगा जिससे तुम्हें प्रसन्नता हो।”

राजकुमार ने अपने पिता की बातें सुनीं और उत्तर दिया, “मुझे किसी भी बात का दुःख नहीं है और न ही किसी ने मेरा अपमान किया है। परन्तु मैं उस लड़की से विवाह करना चाहता हूँ जो सोने के सूप में जौ साफ कर रही थी।” यह सुनकर राजा आश्चर्यचकित हो गया और बोला, “हे बेटा, ऐसी कन्या का पता तुम ही लगाओ। मैं उसका विवाह अवश्य ही तुमसे करवा दूंगा।” राजकुमार ने उस लड़की के घर का पता बताया। तब मंत्री उस लड़की के घर गए और ब्राह्मण देवता को सारी स्थिति बताई। ब्राह्मण देवता राजकुमार के साथ अपनी कन्या का विवाह करने के लिए सहमत हो गए और विधि-विधान के अनुसार, ब्राह्मण की कन्या का विवाह राजकुमार के साथ सम्पन्न हो गया।

कन्या के घर से जाते ही, ब्राह्मण देवता के घर में फिर से गरीबी का डेरा हो गया। अब भोजन के लिए भी अन्न बड़ी मुश्किल से मिलता था। एक दिन दुःखी होकर ब्राह्मण देवता अपनी पुत्री के पास गए। बेटी ने अपने पिता की दुःखी अवस्था को देखा और अपनी माँ का हाल पूछा। ब्राह्मण ने सभी हाल कह दिया। कन्या ने बहुत सा धन देकर अपने पिता को विदा कर दिया। इस प्रकार, ब्राह्मण का कुछ समय सुखपूर्वक बीता। कुछ दिनों बाद, फिर वही हाल हो गया।

ब्राह्मण फिर अपनी कन्या के पास गया और उसे सारी स्थिति बताई। तब लड़की ने कहा, “हे पिताजी, आप माताजी को यहाँ ले आइए। मैं उन्हें ऐसी विधि बता दूंगी जिससे गरीबी दूर हो जाएगी।” ब्राह्मण देवता अपनी स्त्री को लेकर पहुंचे, तब उनकी बेटी समझाने लगी, “हे माँ, आप प्रातःकाल पहले स्नान करके विष्णु भगवान का पूजन करें, इससे सारी दरिद्रता दूर हो जाएगी।” परन्तु उसकी माँ ने एक भी बात नहीं मानी और सुबह उठकर अपनी पुत्री के बच्चों की जूठी चीजें खा लीं।

इससे उसकी पुत्री को बहुत गुस्सा आया और एक रात उसने कोठरी से सभी सामान निकालकर अपनी माँ को वहाँ बंद कर दिया। प्रातःकाल उसे निकाला, स्नान आदि कराकर पाठ करवाया, जिससे उसकी माँ की बुद्धि ठीक हो गई। इसके बाद, उसकी माँ ने हर बृहस्पतिवार को व्रत रखना शुरू कर दिया। इस व्रत के प्रभाव से उसके माता-पिता बहुत धनवान और पुत्रवान हो गए, और बृहस्पतिजी की कृपा से इस लोक के सुख भोगकर स्वर्ग को प्राप्त हुए।

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