गीता के अध्याय 2, श्लोक 34(Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 34) में भगवान कृष्ण अर्जुन को जीवन और सम्मान के गहरे मर्म का ज्ञान दे रहे हैं। इस श्लोक में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को यह समझाने का प्रयास किया है कि एक सम्माननीय व्यक्ति के लिए अपयश मृत्यु से भी अधिक पीड़ादायक होता है।

श्लोक 2.34 और इसका भावार्थ श्लोक: अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् | सम्भावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते || ३४ ||

शब्दार्थ: अकीर्तिम् – अपयश – और अपि – इसके अतिरिक्त भूतानि – सभी लोग कथयिष्यन्ति – कहेंगे ते – तुम्हारे अव्ययाम् – अपयश, अपकीर्ति मरणात् – मृत्यु से अतिरिच्यते – अधिक होती है

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भावार्थ:

इस श्लोक में भगवान कृष्ण कहते हैं कि संसार के लोग किसी व्यक्ति के कर्मों का आकलन यश और अपयश के आधार पर करते हैं। यदि किसी व्यक्ति ने जीवन में सम्मान अर्जित किया है, तो उसे अपनी प्रतिष्ठा का हमेशा ध्यान रखना चाहिए। अपयश प्राप्त करना एक सम्माननीय व्यक्ति के लिए अत्यंत पीड़ादायक और मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक होता है।

श्लोक का तात्पर्य और इसकी गहनता महाभारत के युद्ध के प्रारंभ में अर्जुन युद्ध करने के लिए तैयार थे, लेकिन जैसे ही उन्होंने अपने सगे-संबंधियों, मित्रों और गुरुजनों को सामने देखा, वे दुविधा में पड़ गए और युद्ध करने से पीछे हटने लगे। ऐसे में भगवान कृष्ण ने उन्हें उनके कर्तव्य का स्मरण कराया।

इस श्लोक के माध्यम से भगवान अर्जुन को सिखाते हैं कि युद्ध छोड़ने का उनका निर्णय उन्हें यश की बजाय अपयश का भागी बनाएगा। कृष्ण के अनुसार, अपकीर्ति से बचने के लिए व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, चाहे परिस्थिति कैसी भी क्यों न हो।

श्लोक 2.34 से प्राप्त मुख्य शिक्षाएं कर्तव्य से विमुख न हों: भगवान कृष्ण के अनुसार, हर व्यक्ति का प्रमुख धर्म अपने कर्तव्यों का पालन करना है। चाहे परिस्थिति कैसी भी हो, हमें अपने कर्तव्यों से कभी भी पीछे नहीं हटना चाहिए।

अपयश मृत्यु से भी बुरा: एक सम्माननीय व्यक्ति के लिए अपकीर्ति सबसे बड़ी विपत्ति है। बदनामी व्यक्ति के सम्मान को नष्ट कर देती है और उसके लिए मृत्यु से भी अधिक पीड़ादायक हो सकती है।

सम्मान और प्रतिष्ठा की रक्षा करें: व्यक्ति को अपने सम्मान और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। यदि आवश्यकता पड़े, तो जीवन का त्याग करना भी श्रेयस्कर है।

Bhagavad Gita:गीता अध्याय 2 श्लोक 35 अर्थ सहित – भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां