Krishna Chhathi| श्रीकृष्ण जी की छठी पर क्यों लगता है कढ़ी का भोग

Krishna Chhathi Bhog: श्रीकृष्ण की छठी पर कढ़ी का भोग लगाने की परंपरा अत्यंत प्राचीन और श्रद्धापूर्ण मानी जाती है। जन्माष्टमी के छह दिन बाद भक्त लड्डू गोपाल को कढ़ी-चावल का भोग अर्पित करते हैं। यह भोग न केवल भगवान श्रीकृष्ण को प्रिय है, बल्कि भक्तिभाव और गहन आस्था का प्रतीक भी माना जाता है। भारतीय धार्मिक परंपराओं में अनेक ऐसे रीति-रिवाज शामिल हैं, जो देखने में सरल होते हुए भी उनमें गहरी आध्यात्मिकता और प्रेम का भाव छिपा होता है। इन्हीं परंपराओं में से एक है छठी के अवसर पर कढ़ी चढ़ाने की विशेष प्रथा। यह परंपरा सुनने में भले ही साधारण लगे, किंतु इसके पीछे शास्त्रीय मान्यताओं और भक्ति की गहराई का सुंदर संगम निहित है।

श्रीकृष्ण
Shri Krishna Chhathi

दरअसल, जन्माष्टमी के छह दिन बाद छठी का उत्सव बड़ी धूमधाम और उत्साह से मनाया जाता है। इस अवसर पर मंदिरों और घरों में लड्डू गोपाल का विशेष श्रृंगार किया जाता है और उन्हें विविध प्रकार के व्यंजनों का भोग अर्पित किया जाता है, जिनमें कढ़ी-चावल का भोग विशेष महत्व रखता है। कढ़ी में प्रयुक्त दही और बेसन केवल सात्विक आहार का हिस्सा नहीं हैं, बल्कि इन्हें धार्मिक दृष्टि से भी अत्यंत पवित्र माना गया है।

मान्यता यह है कि जब भक्त छठी पर कढ़ी-चावल का भोग अर्पित करते हैं, तो यह केवल भोजन का अर्पण नहीं होता, बल्कि अपने प्रेम, समर्पण और श्रद्धा को सीधे भगवान श्रीकृष्ण तक पहुंचाने का माध्यम होता है। इस परंपरा का पालन करना भक्तों के लिए भगवान के प्रति अपने गहरे अनुराग और आस्था को प्रकट करने का अवसर प्रदान करता है। यही कारण है कि जन्माष्टमी के उपरांत छठी का पर्व और उस दिन कढ़ी का भोग लगाना, भक्तों के लिए आध्यात्मिक आनंद और आशीर्वाद प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन माना जाता है।

भगवान श्रीकृष्ण की छठी पर कढ़ी का भोग क्यों लगाया जाता है?

कृष्ण छठी पर कढ़ी का भोग क्यों लगाया जाता है, इसके पीछे गहरी धार्मिक मान्यता और परंपरा जुड़ी हुई है। कढ़ी का भोग बनाने के समय विशेष नियमों और शुद्धता का पालन अनिवार्य रूप से किया जाता है। इस व्यंजन को तैयार करने में दही, बेसन और हल्के मसालों का उपयोग किया जाता है, जो इसे सात्विक और पवित्र बनाता है। कढ़ी को सात्विक भोजन इसलिए भी माना जाता है क्योंकि यह न केवल शरीर को शीतलता प्रदान करती है, बल्कि आध्यात्मिक दृष्टि से भी शुद्धता का प्रतीक मानी जाती है।

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान श्रीकृष्ण को माखन और दही अत्यंत प्रिय हैं। यही कारण है कि उनसे जुड़े किसी भी व्यंजन को उन्हें भोग के रूप में अर्पित करना शुभ और फलदायी माना जाता है। कढ़ी में दही का खट्टापन और बेसन का हल्का स्वाद मिलकर इसे और अधिक विशेष बना देता है। यह भोग न केवल स्वाद की दृष्टि से अद्वितीय है, बल्कि इसके पीछे भक्ति और समर्पण की गहरी भावना भी निहित रहती है। इसलिए कृष्ण छठी पर कढ़ी-चावल का भोग लगाना केवल एक परंपरा ही नहीं, बल्कि भक्त और भगवान के बीच प्रेम और आस्था का सुंदर सेतु है।

श्रीकृष्ण की छठी पर कढ़ी का भोग अर्पित करने का उद्देश्य यह होता है कि भक्त अपने आराध्य के हृदय में स्थान प्राप्त करें। यह परंपरा केवल भोजन अर्पण तक सीमित नहीं है, बल्कि एक गहन प्रतीकात्मक क्रिया है, जिसमें भक्त अपने मन, वाणी और कर्म के माध्यम से संपूर्ण समर्पण व्यक्त करते हैं। छठी को हृदय का प्रतीक माना गया है, और हृदय ही प्रेम, करुणा तथा स्नेह का केंद्र होता है। जब भक्त इस दिन कढ़ी का भोग लड्डू गोपाल को अर्पित करते हैं, तो यह केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं रहता, बल्कि उनके और भगवान के बीच आत्मीयता, विश्वास और गहरे आध्यात्मिक संबंध का प्रतीक बन जाता है।

शास्त्र में है वर्णन

शास्त्रों में भी कढ़ी भोग की परंपरा का उल्लेख मिलता है। इसे विशेष अवसरों पर निभाया जाता है, जिनमें जन्माष्टमी सबसे प्रमुख पर्व माना जाता है। जन्माष्टमी के दिन मंदिरों में श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव बड़े हर्षोल्लास और भक्ति भाव से मनाया जाता है। मध्यरात्रि में जन्म आरती के पश्चात भगवान को माखन, दही, मिश्री, पंजीरी तथा कढ़ी जैसे सात्विक व्यंजन अर्पित किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त श्रीकृष्ण जयंती, गोवर्धन पूजा और कुछ विशिष्ट व्रत-पर्वों के दौरान भी यह भोग लगाने की परंपरा जीवंत रहती है। विशेषकर ब्रज क्षेत्र, गुजरात और राजस्थान के अनेक मंदिरों में इस परंपरा का पालन आज भी बड़े श्रद्धा भाव से किया जाता है।

धार्मिक ग्रंथों में भी भोग अर्पण को भक्ति का एक महत्वपूर्ण अंग माना गया है। भागवत पुराण और विष्णु धर्मसूत्र में वर्णन है कि भगवान को प्रेम और सात्विकता से अर्पित किया गया भोग न केवल उन्हें प्रसन्न करता है, बल्कि भक्त की सभी मनोकामनाओं को भी पूर्ण करता है। कढ़ी का भोग केवल एक परंपरागत अर्पण नहीं है, बल्कि यह भक्त और भगवान के बीच भावनात्मक संवाद का प्रतीक है, जिसमें भक्त अपनी श्रद्धा और आस्था को भगवान के चरणों में अर्पित करता है।

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