Putrada Ekadashi Vrat Katha| पुत्रदा एकादशी व्रत कथा |जाने वाजपेय यज्ञ के समान पुण्य देने वाली व्रत कथा

Putrada Ekadashi Katha:जो भी श्रद्धालु श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत करता है, उसे पूजन के उपरांत पुत्रदा एकादशी की व्रत कथा अवश्य सुननी चाहिए। धार्मिक मान्यता के अनुसार, जब तक व्रत कथा नहीं सुनी जाती, तब तक व्रत पूर्ण नहीं माना जाता। यह कथा सुनने मात्र से ही व्यक्ति को वाजपेय यज्ञ के समान पुण्य प्राप्त होता है और उसकी मनोकामनाएं भी पूरी होती हैं।

महाभारत काल में जब धर्मराज श्री युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से श्रावण कृष्ण पक्ष की कामिका एकादशी के बारे में सुना, तो उन्होंने अगली शुक्ल पक्ष की एकादशी के बारे में भी जानने की इच्छा प्रकट की। युधिष्ठिर ने निवेदन करते हुए कहा, “हे मधुसूदन! अब कृपा करके श्रावण शुक्ल एकादशी का नाम, पूजन विधि और इसका महात्म्य विस्तार से बताइए।”

पुत्रदा एकादशी
Putrada Ekadashi Vrat Katha

पुत्रदा एकादशी व्रत कथा (Putrada Ekadashi Vrat Katha)

भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर देते हुए कहा, “हे राजन! श्रावण शुक्ल पक्ष की इस पुण्य तिथि को पुत्रदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इसे कुछ स्थानों पर पवित्रा एकादशी भी कहा जाता है। यह व्रत संतान सुख की प्राप्ति के लिए अत्यंत फलदायी माना गया है। जो दंपत्ति इस दिन व्रत रखते हैं, उन्हें संतान सुख, पारिवारिक सुख-शांति और गृहस्थ जीवन में संतुलन की प्राप्ति होती है।”

द्वापर युग की शुरुआत में महिष्मति नामक एक समृद्ध नगरी थी, जहां महीजित नामक एक धर्मपरायण राजा का शासन था। राजा के पास ऐश्वर्य, सेना, प्रजा और समृद्धि की कोई कमी नहीं थी, लेकिन एक चीज़ की कमी उसे हमेशा कचोटती थी — पुत्र की अनुपस्थिति। संतानहीन होने के कारण राजा को अपना वैभव भी निरर्थक प्रतीत होता था।

राजा महीजित का मानना था कि जिसके जीवन में संतान नहीं होती, उसके लिए इस लोक का सुख और परलोक की आशा दोनों ही व्यर्थ हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति को न वंश की निरंतरता मिलती है और न ही श्राद्धादि कर्मों से मोक्ष का मार्ग।

जब राजा को यह अनुभव हुआ कि अब उसका जीवन वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहा है, तो उसने राज्य के प्रमुख जनों और प्रतिनिधियों को दरबार में आमंत्रित किया और बड़े ही विनम्र भाव से कहा:

“हे मेरी प्रिय प्रजा! मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ। मेरे राज्य के खजाने में ऐसा कोई धन नहीं है जो अन्यायपूर्वक या छल-कपट से अर्जित किया गया हो। मैंने कभी न तो देवताओं और न ही ब्राह्मणों का धन छीना है। किसी दूसरे की धरोहर या सम्पत्ति को भी मैंने नहीं छुआ। मैंने सदैव प्रजा को अपने पुत्रों के समान माना और उनका पालन-पोषण पिता के दायित्व के साथ किया है।”

“जो व्यक्ति अपराध करता था, उसे मैंने दंड भी अपने पुत्र या सगे संबंधी की भाँति दिया — सुधार की भावना से, न कि घृणा से। जीवन में मैंने कभी किसी से द्वेष नहीं किया, सभी को समान दृष्टि से देखा है। सद्गुणी और सज्जन लोगों का मैंने सदा आदर और सम्मान किया।”

“फिर भी, जब मैं आत्मचिंतन करता हूँ तो पाता हूँ कि धर्म के मार्ग पर चलते हुए भी मुझे एक अत्यंत दुखद अनुभव जीवन भर सालता रहा है — और वह है संतान की अनुपस्थिति।”

“मैं सोचता हूँ, आख़िर मेरे पुण्य, सत्य, सेवा और धर्म के बावजूद भी मुझे पुत्र क्यों प्राप्त नहीं हुआ? यह कौन सा कारण है जो इस दुःख का मूल है?”

राजा महीजित की चिंता और संतान प्राप्ति की कामना को समझते हुए उनके मंत्री और प्रजा के प्रतिनिधि समाधान की खोज में वन की ओर प्रस्थान कर गए। वे वहां एकमात्र उद्देश्य से गए — किसी ऐसे तपस्वी को ढूंढ़ना जो इस गूढ़ समस्या का उचित समाधान बता सके।

वन भ्रमण करते हुए उन्होंने कई महान ऋषि-मुनियों के दर्शन किए और निरंतर प्रयास करते रहे कि कोई ऐसा संत या महात्मा मिल जाए जो राजा की इस कठिन समस्या को दूर करने में सक्षम हो।

अंततः एक पवित्र आश्रम में उनकी भेंट एक अत्यंत वृद्ध, धर्मशास्त्रों के ज्ञाता, महान तपस्वी महर्षि लोमश से हुई। वे पूर्णतः ब्रह्मचर्य और संयम में स्थित, आत्म-नियंत्रण में निपुण, क्रोध को जीत चुके, निराहार जीवन व्यतीत करने वाले तथा सनातन धर्म के रहस्यों से भलीभांति परिचित महान संत थे। कहा जाता है कि उनकी देह से हर कल्प की समाप्ति पर एक रोम गिरता था — वे इतने दीर्घायु और तपस्वी थे।

मंत्री और प्रतिनिधियों ने श्रद्धापूर्वक महर्षि को प्रणाम किया। उनके आगमन पर मुनि लोमश ने करुणापूर्वक उनसे पूछा,
“वत्सों! तुम सभी यहां किस उद्देश्य से आए हो? निस्संदेह, मैं तुम्हारा हित अवश्य करूंगा। मेरा जीवन ही परोपकार के लिए समर्पित है, इसमें कोई संदेह मत रखना।”

महर्षि लोमश के करुणामय और आश्वस्त करने वाले वचनों को सुनकर सभी प्रतिनिधियों ने हाथ जोड़कर निवेदन किया,
“हे महामुनि! आप तो त्रिकालदर्शी हैं, आपकी दृष्टि और ज्ञान ब्रह्मा से भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक है। इसलिए कृपया हमारे इस संदेह को दूर करें और समाधान बताएं।”

उन्होंने आगे कहा,
“हम जिस महिष्मति नगरी से आए हैं, वहाँ के शासक राजा महीजित एक धर्मनिष्ठ और न्यायप्रिय राजा हैं। उन्होंने सदैव अपनी प्रजा की सेवा पुत्रवत् की है। परंतु दुर्भाग्यवश वे संतान सुख से वंचित हैं, जिसके कारण वे अत्यंत दुःखी रहते हैं।”

प्रतिनिधियों ने भावुक होकर यह भी कहा,
“हम उनके सेवक और प्रजा हैं, इसलिए उनका दुःख हमारा भी दुःख बन गया है। जब शासक दुखी होता है, तो पूरी प्रजा उसके साथ व्यथित हो जाती है।”

“हे महर्षि! आपके दर्शन मात्र से ही हमारे मन में आशा का संचार हुआ है। हमें पूर्ण विश्वास है कि आपकी कृपा और मार्गदर्शन से यह संकट अवश्य दूर हो जाएगा। आप जैसे महान संतों के दर्शन से ही अनेक जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं, फिर यह तो एक सांसारिक क्लेश है।”

“कृपया कर हमें यह बताइए कि हमारे राजा को संतान की प्राप्ति कैसे हो सकती है?”

ऋषि लोमश ने जब सभी की बात सुनी तो उन्होंने कुछ समय के लिए नेत्र मूंद लिए और तपोबल से राजा महीजित के पूर्व जन्म की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त किया। फिर वे बोले, “यह राजा पिछले जन्म में एक अत्यंत निर्धन वैश्य था। अपनी दरिद्रता के कारण इसने कई बार अनुचित कर्म भी किए। यह एक गांव से दूसरे गांव व्यापार करने जाया करता था।”

ऋषि ने आगे बताया, “एक बार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि थी। वह व्यापारी दो दिन से भूखा-प्यासा था और दोपहर के समय एक जलाशय पर जल पीने पहुँचा। वहीं पर एक ब्याही हुई प्यासी गाय पहले से जल पी रही थी। उस वैश्य ने उस गाय को हटाकर स्वयं जल पी लिया।”

“उस समय एकादशी का व्रत भूखे रहकर अनजाने में इस व्यापारी से हो गया था, जिसके पुण्य से इसे राजा का जन्म प्राप्त हुआ। परंतु गाय को जल पीते समय हटाने के कारण इसे पुत्र प्राप्ति का सुख नहीं मिल रहा है।”

यह सुनकर सब लोग ऋषि से प्रार्थना करने लगे, “हे महात्मा! जब पाप होता है तो शास्त्रों में उसका प्रायश्चित भी बताया गया है। कृपा करके हमें ऐसा उपाय बताइए जिससे राजा के पाप का नाश हो और उसे संतान सुख प्राप्त हो।”

तब ऋषि लोमश बोले, “श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की जो एकादशी आती है, उसे पुत्रदा एकादशी कहते हैं। तुम सब लोग इस व्रत को विधिपूर्वक करो और रात्रि जागरण भी करो। इस उपाय से राजा का पूर्व जन्म का पाप नष्ट होगा और उसे संतान की प्राप्ति अवश्य होगी।”

ऋषि के वचनों का आदर करते हुए मंत्री और प्रतिनिधि नगर लौटे। जब श्रावण शुक्ल पुत्रदा एकादशी आई, तब सभी लोगों ने ऋषि के निर्देशानुसार व्रत रखा और रातभर जागरण किया।

द्वादशी के दिन उस पुण्य का फल राजा को समर्पित किया गया। उस पुण्य प्रभाव से रानी गर्भवती हुई और समय आने पर उसने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया।

इसी कारण इस एकादशी को “पुत्रदा एकादशी” कहा जाता है। अतः जो व्यक्ति संतान सुख की कामना करता है, उसे यह व्रत अवश्य करना चाहिए। इस व्रत की कथा को श्रद्धा से सुनने से सभी पापों का नाश होता है और मनुष्य इस लोक में सुख पाकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त करता है।

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