Mahabharat| महाभारत के भीष्म पितामह 58 दिन बाणों पर क्यों लेटे रहे? जानें उनकी इच्छा मृत्यु और मोक्ष की रहस्यमयी कथा

Mahabharat Story: भीष्म पितामह एक ऐसे योद्धा और तपस्वी थे जिन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत लिया, हस्तिनापुर की सेवा को अपना धर्म माना और अंत तक धर्म के मार्ग पर चलने का प्रयास किया। महाभारत युद्ध में भीष्म पितामह कौरव पक्ष के सेनापति थे और अर्जुन के बाणों से बिंधकर शर शय्या पर गिर पड़े। परंतु, यह जानकर सभी चकित होते हैं कि इतनी असहनीय पीड़ा के बाद भी उन्होंने 58 दिनों तक अपने प्राण नहीं त्यागे। इस लेख में हम समझेंगे कि भीष्म पितामह ने इतने दिनों तक प्राण क्यों नहीं त्यागे और इसके पीछे क्या धार्मिक, आध्यात्मिक तथा ज्योतिषीय कारण थे।

भीष्म पितामह
Bhishma Pitamah Story भीष्म पितामह ने 58 दिन बाद ही क्यों त्यागे प्राण?

भीष्म पितामह: इच्छामृत्यु का वरदान

भीष्म पितामह को उनके तप और ब्रह्मचर्य के पालन के कारण उनके पिता राजा शांतनु से इच्छामृत्यु का वरदान प्राप्त था। इसका अर्थ था कि वे अपनी इच्छा से ही मृत्यु को वरण कर सकते थे, यानी जब तक वे स्वयं न चाहें, मृत्यु उन्हें नहीं आ सकती थी। यह वरदान उन्हें उनके महान त्याग के कारण मिला था जब उन्होंने अपने पिता की इच्छाओं की पूर्ति हेतु राजगद्दी और विवाह का त्याग कर दिया था।

यह वरदान ही उनकी मृत्यु में विलंब का एक मुख्य कारण था। जब अर्जुन ने युद्ध के दसवें दिन शिखंडी की सहायता से पितामह पर बाणों की वर्षा की और वे रणभूमि में बाणों की शय्या पर गिर पड़े, तब भी उनके प्राण नहीं निकले क्योंकि उन्होंने अभी मृत्यु का वरण नहीं किया था।

शर शय्या पर भीष्म की स्थिति

भीष्म पितामह का शरीर असंख्य बाणों से बिंधा हुआ था। वे ज़मीन पर नहीं गिरे, बल्कि उनके शरीर में लगे बाणों ने ही उनके लिए शय्या का कार्य किया। उनके सिर के नीचे कोई तकिया नहीं था, जिसे देखकर अर्जुन ने तीन बाणों से एक सिरहाना बनाया ताकि उनका सिर ऊँचा रहे। सूर्य की तीव्र किरणें उनकी आँखों पर पड़ रही थीं, तब अर्जुन ने ही एक बाण से सूर्य की किरणों को रोकने के लिए छत्र जैसी व्यवस्था भी की।

भीष्म के शरीर में व्याप्त पीड़ा अकल्पनीय थी, लेकिन उन्होंने इसे सहा क्योंकि वे मृत्यु का वरण नहीं करना चाहते थे।

58 दिनों तक क्यों जीवित रहे?

अब प्रश्न यह है कि इतनी असहनीय पीड़ा में भी उन्होंने 58 दिन तक प्राण त्यागने से क्यों इंकार किया? इसके पीछे मुख्यतः तीन महत्वपूर्ण कारण थे:

उत्तरायण की प्रतीक्षा

धार्मिक मान्यताओं के अनुसार मृत्यु के समय का व्यक्ति के अगले जन्म और मोक्ष से गहरा संबंध होता है। हिन्दू धर्म में ‘उत्तरायण’ को अत्यंत पवित्र काल माना गया है। उत्तरायण वह समय होता है जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तर दिशा की ओर गमन करता है – यह मकर संक्रांति से शुरू होता है। यह माना जाता है कि उत्तरायण में मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

भीष्म पितामह जैसे धर्मज्ञ और ज्ञानी व्यक्ति इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे। उन्होंने शर शय्या पर लेटे-लेटे सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा की ताकि वे अपने शरीर का त्याग उस समय कर सकें जब आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति का मार्ग सहज हो। यही कारण था कि उन्होंने लगभग 58 दिनों तक असहनीय पीड़ा सहन की, लेकिन प्राण नहीं त्यागे।

राजधर्म की शिक्षा पूर्ण करना

भीष्म पितामह केवल योद्धा नहीं, बल्कि राजनीति, धर्म और नीति शास्त्र के ज्ञाता भी थे। युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर गहरे शोक में डूब गए और राज्य संचालन को लेकर असमंजस में थे, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भीष्म के पास भेजा। भीष्म ने बाणों की शय्या पर लेटे-लेटे राजधर्म, नीतिधर्म और समाज धर्म का ज्ञान युधिष्ठिर को दिया।

यह ज्ञान आगे चलकर भीष्म पर्व के रूप में महाभारत में शामिल हुआ, जो एक सम्पूर्ण राजनेता और धर्मज्ञ के लिए अत्यंत मूल्यवान ग्रंथ बन गया। उन्होंने तब तक अपने प्राण नहीं त्यागे जब तक वे युधिष्ठिर को सही मार्ग नहीं दिखा पाए।

भीष्म पितामह का जीवन और मृत्यु दोनों ही धर्म और कर्म की पराकाष्ठा का उदाहरण हैं। उन्होंने इच्छा मृत्यु का वरदान केवल अपने लिए नहीं, बल्कि मानव जाति को एक सीख देने के लिए प्रयोग किया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि:

  • मनुष्य अपने कर्मों और व्रतों से जीवन को नियंत्रित कर सकता है।
  • धर्म की रक्षा हेतु कितना भी कष्ट सहना पड़े, उससे विचलित नहीं होना चाहिए।
  • मृत्यु को भी धर्म के अधीन लाया जा सकता है, यदि संकल्प मजबूत हो।

भीष्म की मृत्यु

अंततः मकर संक्रांति के दिन, जब सूर्य उत्तरायण हुआ, तब भीष्म ने भगवान श्रीकृष्ण को प्रणाम किया, अपने शरीर से संबंध त्यागा और स्वेच्छा से प्राण छोड़े। यह दृश्य अत्यंत भावुक और आध्यात्मिक था।

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FAQs

भीष्म पितामह ने महाभारत युद्ध में कब प्राण नहीं त्यागे और क्यों?

भीष्म पितामह ने युद्ध के दसवें दिन बाणों की शय्या पर गिरने के बाद भी तुरंत प्राण नहीं त्यागे, क्योंकि उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। उन्होंने उत्तरायण काल (मकर संक्रांति) की प्रतीक्षा की, जिसे मोक्ष प्राप्ति के लिए शुभ माना जाता है।

भीष्म पितामह कितने दिन तक बाणों की शय्या पर जीवित रहे थे?

भीष्म पितामह 58 दिनों तक बाणों की शय्या पर लेटे रहे। इस दौरान उन्होंने असहनीय पीड़ा सहते हुए भी न केवल प्राण नहीं त्यागे, बल्कि युधिष्ठिर को धर्म, राजनीति और राज्य संचालन का ज्ञान भी दिया।

भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान किसने और क्यों दिया था?

भीष्म पितामह को यह वरदान उनके त्याग, ब्रह्मचर्य व्रत और पिता की इच्छा पूर्ति के लिए मिला था। देवताओं ने उनके इस महान बलिदान से प्रसन्न होकर उन्हें स्वेच्छा से मृत्यु चुनने का वरदान दिया।

बाणों की शय्या पर भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को कौन-सा ज्ञान दिया?

भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को राजधर्म, आपद्धर्म, श्राद्ध कर्म, नीति और मोक्ष धर्म का गहन ज्ञान दिया, जो महाभारत के “भीष्म पर्व” में विस्तार से वर्णित है।

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