सच्चा संत कौन होता है?
प्रेमानंद जी महाराज के अनुसार, सच्चा संत वह होता है जो संसार के मोह को त्याग कर केवल भगवान के चिंतन में लीन रहता है।
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संत की पहली पहचान — कंचन का त्याग
सच्चा संत धन और वैभव को मिट्टी के समान समझता है। उसके लिए सोना, पत्थर और मिट्टी में कोई फर्क नहीं होता।
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संत की दूसरी पहचान — कामिनी से निर्लिप्तता
जो संत देह भाव और भौतिक आकर्षण से ऊपर उठ चुका हो, वही वास्तव में आत्मा की ओर अग्रसर होता है।
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संत की तीसरी पहचान — कीर्ति से विरक्ति
जिसे नाम, यश, प्रतिष्ठा की कोई चाह न हो — ऐसा संत ही भगवान का सच्चा सेवक कहलाता है।
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संत का जीवन — करुणा और सहनशीलता से भरा
सच्चा संत सभी के प्रति करुणा रखता है, किसी से अपेक्षा नहीं करता और अपमान में भी शांत रहता है।
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संत का सहज स्वभाव — भागवत चिंतन
जैसे सांस लेना हमारा स्वभाव है, वैसे ही सच्चे संत का स्वभाव होता है निरंतर भगवान का चिंतन करना।
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संत की इच्छाविहीन स्थिति
जो व्यक्ति अपनी सभी इच्छाओं का त्याग कर देता है और संसार से कोई अपेक्षा नहीं रखता — वही सच्चा संत होता है।
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सच्चा संत किसी का शत्रु नहीं होता
वह निर्वैर होता है, सभी को भगवान का अंश मानता है और सभी से प्रेम करता है।
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सच्चे संत की पहचान जीवन बदल सकती है
प्रेमानंद जी महाराज सिखाते हैं कि सच्चा संत वह है जो भीतर से शुद्ध, ईश्वर में लीन और संसार से निर्लिप्त हो।
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